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शालिनी मोहन

Abstract

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शालिनी मोहन

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मन एक पंछी

मन एक पंछी

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मन क्यों होता है पंछी

हरदम उड़ता रहता है

अपने अंदर रंग भर, कभी बेरंग

जाने क्या-क्या बुनता है

उलझ-उलझ सा जाता हरदम

मन क्यों होता है पंछी।


जब हरियाली होती है

फुदक-फुदक करता है

पर पतझड़ में ही क्यों

हरियाली ढूँढ़ा करता है

दूर पर्वत, झरनों की

कलकल से बेसुध

क्यों रोता रहता है।


मन है एक पंछी बावरा

डाल-डाल भटकता है

मौसम की सुध लेने में

हरदम खोया रहता है

क्यों नहीं झाँके अपने अंदर

मन तू बड़ा मगन है।


बाहर के दरवाज़े से मन

आजा अंदर घर में

यहाँ सुकून है ठंडी हवा की

साँसों में तो भरकर देख

तन ये शीतल कर देगा मन

फिर क्यों भागे इधर-उधर रे मन।


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