साड़ी में लिपटी नारी
साड़ी में लिपटी नारी
क्या सादगी
चेहरे पर उसके छाई है
जैसे पूस के महीने में
धूप मन को भायी है
सीमाओं में बँधी
असीमितताओं को समेटे
लो साड़ी में आ गई
नारी एक लिपटी।
आई तो सबको बाँध लिया
बेटी को इसने नाम दिया
जा कर भी सबको बाँध दिया
बहू से घर को आबाद किया
बँध गई जिसने भी बाँध दिया
सूनी कलाई को है नाम दिया
अपने घने केसू से
सारे घर में है छाँव किया।
स से सबल, प्र से प्रबल
म से ममता को निस्सार किया
अपने नयन के बूँदों से
प्यार से है सबको थाम लिया
कर्म को ही धर्म समझा
लोभ से हमेंशा रही दूर
मेहनत की पराकाष्ठा कर दी
कभी न इसका हुआ ग़ुरुर।
बारिश की निरंतर बूँदें भी
इस चट्टान को ना पिघला सकी
बनी, मिटी, मिट के बनी।