STORYMIRROR

Anita Sudhir

Abstract

3  

Anita Sudhir

Abstract

चलते चलते

चलते चलते

1 min
328

चलते चलते

चाहों के अंतहीन सफर 

मे दूर बहुत दूर चले आये

खुद ही नही खबर 

क्या चाहते हैं 


राह से राह बदलते

चाहों के भंवर जाल में 

उलझते गिरते पड़ते 

कहाँ चले जा रहे हैं।


कभी कभी 

मेरे पाँवों के छाले

तड़प तड़प

पूछ लिया करते हैं

चाहतों का सफर

अभी कितना है बाकी 

मेरे पाँव अब थकने लगे हैं।


मेरे घाव अब रिसने लगे है

आहिस्ता आहिस्ता,

रुक रुक चलो

थोड़ा थोड़ा मजा लेते चलो।


हँसते हँसते 

बोले हम अपनी चाहों से

कम कम, ज्यादा ज्यादा 

जो जो भी पाया है 

सहेज समेट लेते हैं।


चाहों की चाहत को

अब हम विराम देते हैं

सिर्फ ये चाह बची है कि

अब कोई चाह न हो।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract