चलते चलते
चलते चलते
चलते चलते
चाहों के अंतहीन सफर
मे दूर बहुत दूर चले आये
खुद ही नही खबर
क्या चाहते हैं
राह से राह बदलते
चाहों के भंवर जाल में
उलझते गिरते पड़ते
कहाँ चले जा रहे हैं।
कभी कभी
मेरे पाँवों के छाले
तड़प तड़प
पूछ लिया करते हैं
चाहतों का सफर
अभी कितना है बाकी
मेरे पाँव अब थकने लगे हैं।
मेरे घाव अब रिसने लगे है
आहिस्ता आहिस्ता,
रुक रुक चलो
थोड़ा थोड़ा मजा लेते चलो।
हँसते हँसते
बोले हम अपनी चाहों से
कम कम, ज्यादा ज्यादा
जो जो भी पाया है
सहेज समेट लेते हैं।
चाहों की चाहत को
अब हम विराम देते हैं
सिर्फ ये चाह बची है कि
अब कोई चाह न हो।