प्रकृति से संवाद
प्रकृति से संवाद
वाह ! अद्भुत ! अप्रतीम !
अतीव सुंदर है अचला मेरी।
क्या खूब कुदरत-सृष्टि एवं
प्रकृति ने सजाई धरा मेरी।
हे मां प्रकृति आज तुम
मेरा स्नेहिल संवाद ले लेना।
हो सके तो सुरभित हवा से,
अपना साधुवाद दे देना।
अहा ! करती मन को विस्मित
अति ये नीली नीली वादियां।
हुई नीलवर्ण क्यों सांझ है ?
या नीलम का पहना ताज है।
वादियां ये घुल-मिल नेहा
संग बजाती मधुर साज हैं।
मिल पक्षी कलरव कर रहे,
शुभ्र श्वेत सरोज खिल रहे।
लगता है नीले से सरोवर में
प्रेमी युगल हंस हों मिल रहे।
शुभ संध्या यह सुकाल है
सौंदर्य की अनुपम मिसाल है।
इस दिव्य अलौकिक प्रकाश से
परिवेश सुरभित निहाल है।
इस धरा से अनंत आकाश तक
सब श्याम रंग, रंग ढल रहे।
ज्यूं शुक्ल राधिका के संग हों
केशव अट्ठखेलियां कर रहे।
भानु प्रिया संध्या हो हर्षित बहु
है ला रही सुंदर चांदनी।
जीवंत होकर के देखो इठला
रही हो प्राणवंत यह जिंदगी।
आशीष बरस रहा व्योम से
वसुधा हुलस कर गा रही।
मधुर गीत गा रही प्यारी कोयल
रही नाच पुर्वा पहन पायल।
लगता है जैसे हृदय मेरा
संजीवनी है पी रहा।
इस नील वर्ण सी सांझ में
प्रकृति का हर कण जी रहा।
देखो भूले सब वेदना,
मौसम भी हर्षित हो रहा झंकृत।
आनंद सबका उमड़ रहा और
पीड़ा कर रही क्रीड़ा अनंत
हे नीलगीरी, देख तेरी साधना,
हुआ मन मंत्रमुग्ध अत्यंत
मन को मिला अति सुकून यहां,
नहीं शेष भाव कोई ज्वलंत।
