छूट गया बचपन मतवाला
छूट गया बचपन मतवाला
आज अचानक, यादों के कुछ
विस्मृत से चित्रों के साये,
आकर नजरों के बंधन में,
मीठे से वो पल गिनवायें।
छूटी हुई सारी शागिर्दे,
यादे बचपन की मतवाली,
लट्टू का वो खेल अनोखा,
आम और जामुन की डाली।
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हम पिट्ठू के थे दीवाने,
नाक मुँह दोनों से गाते,
रहते थे हिमेश के गाने।
गिली-डंडा, लुका-छिपी,
वो आम की गुठली की सीटी,
वो दस रुपये का क्रिकेट मैच,
और उसके बाद की वो पार्टी।
नहीं ढूंढते थे स्टैटस,
न थी कोई शर्त हमारी,
काठ के बल्ले के मालिक से,
हो जाती थी अपनी यारी।
वो थके खेल कर वापस आना,
माँ की वो दुत्कार लगाना,
<p>लेकिन फिर उस डांट के बदले,
माँ हाथो से लाड़ कराना।
शक्तिमान से शाम सजी थी,
और लोरियों से थी रात,
वाशिंग पाउडर निरमा वाली
लड़की मे कुछ और थी बात।
मंदिर में प्रसाद थे खाते,
रमज़ानो मे मस्जिद जाते,
अली काका के उस दुकान पर,
घण्टों बीती करते बाते।
जाति धर्म कब समा मगज मे,
तनिक हुई न खबर हमे,
घृणा और नफरत ने कब और,
कैसे लिया जकड़ हमे।
उन्नति की चाह उठी क्यों,
कोसता है ये हृदय हमारा,
मन जिसने इच्छा थी पाली,
फिरता बन बागी बेचारा।
करे भला क्या ? सोचे मन भी,
व्यस्त हो बन जाए सवाली,
मिटे कचोट न लेकिन फिर भी,
छूट गया बचपन मतवाली ।