आऊंगा माँ किसी भोर
आऊंगा माँ किसी भोर
छोड़कर वन, पर्वतों को,
मोड़कर झंझावतों को,
पूर्ण कर कर्तव्य सारे,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे।
आहुति के इस हवन में,
छोडकर जीने की होड़।
आऊंगा माँ किसी भोर,
तू भी माँ है, ये भी माँ है,
फर्क बस इतना यहाँ है,
तूने मुझको प्राण दी है,
और इसने पहचान दी है।
माटी के सम्मान हेतु
पूर्ण कर कर्मों का दौर।
आऊंगा माँ किसी भोर,
अस्मिता है लगी दाव पर,
कैसे लगने दूँ घाव पर ?
मिट्टी का कण-कण ऋणी मैं,
कैसे डींगने, दूँ पाव पर ?
अस्मिता के इस समर मे,
यम तक दुश्मनों को छोड़।
आऊंगा माँ। किसी भोर,
आती जाती सर्द लहरें,
बढ़ के बरसाती है कहरे,
पर मनोबल टूटता नहीं,
साधना य़ह छूटता नहीं।
ले पदक या फिर शहीदी,
करने फिर देहरी पे शोर।
आऊंगा माँ किसी भोर,
गाँव की वो तंग गलियाँ,
बैठकी और वो चबूतर,
गोलियों के शोर में भी
जाती मेरे मन को छूकर
फिर पकड़ने नींद में मैं,
तेरे उस आँचल का कोर
आऊंगा माँ किसी भोर।
