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ANKIT KUMAR

Tragedy

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ANKIT KUMAR

Tragedy

किस काम का

किस काम का

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वो रोते प्रताड़ित चेहरे

नैतिकता के इंतजार में

न्यायोचित, सर्वधर्म भूमि,

सप्तसिंधु संस्कार के,

हृदय सागर भारत की ओर,

आकांक्षित हो निहारते।

क्या इतना नहीं पर्याप्त है,

हनन उनके स्वाभिमान का??

यू आत्मा मरती रही तो,

प्राण हो किस काम का।


यू ही नहीं कोई देश त्यागता

न त्यागता परिजन, समाज,

असहन हो जाए जब,

दुशासनों के कृत्य काज,

शांतिप्रिय जन पाण्डव जैसे,

है एकान्तवास को पधारते।

क्या नष्ट होगा कभी,

दुशासन मनोविचार का??

मान यू जाता रहा तो,

शौर्य हो किस काम का।


फिर किसी देवकी पुत्र का,

है वध निरंतर हो रहा,

धार्मिक नियम बखान कर,

आततायी घर में सो रहा,

अल्पसंख्यकों की भीड़ वह,

नयी द्वारिका है तलाशती।

क्या होगा नही अंत कभी,

कंसों के अत्याचार का??

भविष्य यू मिटता रहा तो,

धर्म हो किस काम का।



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