हुंकार
हुंकार
मै युद्ध को पीठ पर ढोती हूँ
इसलिए एक हुंकार निकलती है
मैं हर लाज़िमी शब्द पर चिखती हूँ
और नमुनासिब शब्द पर सिसकती हूँ
तलवार नहीं कलम से मस्तिष्क को
तराशती हूं
समझकर भी न समझो
दर्द की धार कितनी पैनी है
प्रसव की पीड़ा में हूँ जैसे
निरंतर सीने में आँख बहती है
उसने दो वक़्त की रोटी के जुगाड़ में
अपनी कमर उधार दे दी
उसने दो वक़्त की रोटी में
अपनी छाती साहूकार के पास रख दी
वो दो रोटी के लिए काले
हाथों की गोरी हथेलियाँ फैलता है
तुमने देखा होगा उस बच्चे की
कमर पर एक बच्चा सोता है
मेरा सीना छीलता है जब ये कहानी कहती हूँ
वो बूढ़ा बाकी छ: का पेट पाल सके,
अपनी बेटी को हैवानों के हवाले कर आता है
दर्द खेती करता है धड़कनों पर
पर किसान अपनी खेती से ही मर जाता है
उनकी क्या कहानी जो बंजारे बन गये
पता नहीं उन माँओ की छाती से कब दूध
फूटता है