पुस्तक
पुस्तक
मेरा भी कभी मान था
लोग लगाकर रखते
अपने सीने से
कभी मौका मिलता मुझे
उनका ललाट चूमने का
बड़ा मान सम्मान था
लोग खूब सजाते थे
अपनी अलमारियों में
और अपने आपको
समझते थे धन्य
मेरी बात को मानकर
सीखते थे, सिखाते थे
करते थे विद्यार्जन
सारे वेद पुराण उपनिषद
और सैकड़ों कृतियाँ
मुझ में ही तो समाहित है
हर पूजा पाठ में
रीति रिवाज में
अज्ञान रूपी अंधेरे से
बाहर निकालने में
असभ्य को सभ्य बनाने में
एक मैं ही तो थी सबके साथ
लेकिन आज मैं व्यथित हूँ
लोगों के व्यवहार से
नहीं चाहते पढ़ना मुझे
नहीं लगाते सीने से
न ही बन पाती मैं
अलमारियों की शोभा
क्योंकि मैं एक
सामान्य पुस्तक ही तो हूँ ।।
