कैसी है ये आजादी
कैसी है ये आजादी
घर वाले तो तरस रहे
गैरों संग प्रेम बरसाए ।
बिन पूछे ही निकले घर से,
देर रात को फिर आए ।
रुपया पैसा रोज फूँकते,
पास बुलाते बर्बादी।
सभ्यता की चिता जलाती,
कैसी है ये आजादी।
खानदान का तो पता नहीं,
नहीं गाँव घर और परिवार।
बात-बात में रिश्ता जोड़े,
भूल जगत का व्यवहार।
अपनों से वो दूर भाग कर,
लुक छिप कर लेते शादी,
जीवन भर पछतावे वाली,
कैसी है ये आजादी।।
