इंसानी सरहदें
इंसानी सरहदें
इंसान ने बनाई ये सरहदें,
इंसानियत की पार कर दी सारी हदें।
जमीन तो थी बस एक,
उसके टुकड़े कर दिए अनेक।
समंदर को चाहा काटना,
आसमान को भी चाहा बाँटना।
नदियों की धाराओं को मोड़ दिया,
समंदर की गहराई को भेद दिया ।
अचल गिरी सुरंगों से लड़खड़ा गए।
हरे - भरे वन इंसान लोभ में स्वाहा हो गए।
आखिर प्रकृति का धैर्य खत्म हो गया,
अपना सरल शांत रुप त्याग उग्र रूप दिखाया।
समंदर की लहरों पर सुनामी ने नर्तन किया,
पहाड़ों पर भूकंप ने तांडव मचाया।
सूर्य के ताप ने सब कुछ झुलसा दिया,
पिघलती बर्फ ने बाढ़ का रूप लिया।
खौलते ज्वालामुखी ने जमीन को पाट दिया।
इंसान ने प्रकृति से खिलवाड़ किया।
अपनी ही कामनाओं के लिए उसे नष्ट किया,
प्रकृति ने भी अपना असली रूप दिखाया।
अब भी सँभल जाए इंसान,
नहीं तो मरुस्थल हो जाएगा यह जहान।
