नवगीत- अभागिन छाँव
नवगीत- अभागिन छाँव
औंधी पड़ी हुई धरती पर,
निपट अभागिन छाँव।
धूप चली है छतरी लेकर,
फिर बादल के गाँव॥
चावल गेहूँ दलहन तिलहन,
नित्य करें मनमानी।
सत्ता सतत निरंकुश बैठी,
मार आँख का पानी॥
भटक रही है पगडंडी पर,
रोटी नंगे पाँव।
औंधी पड़ी हुई धरती पर,
निपट अभागिन छाँव॥
ढुक्कुल खेल रही मँहगाई,
लेकर भूख गरीबी।
चाँद सितारों के गलबहियां,
डाल रही है टीवी।
लगा रही हैं दुविधाएं बस,
चौसर वाले दाँव।
औंधी पड़ी हुई धरती पर,
निपट अभागिन छाँव॥
भ्रष्टाचार अभी भी फिरता,
लेकर ढोल नगाड़े।
खड़ा उजाला चुपके चुपके,
अँधियारे को ताड़े॥
मिले भला कैसे फिर आखिर,
परछाईं को ठाँव।
औंधी पड़ी हुई धरती पर,
निपट अभागिन छाँव।
धूप चली है छतरी लेकर,
फिर बादल के गाँव॥