फिर एकलव्य का अंगूठा कटेगा
फिर एकलव्य का अंगूठा कटेगा

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राजनीति के खेल में क्या हार क्या जीत ;
ना कोई शत्रु यहां और ना यहां कोई मीत !
अब सब साधने में लगे हैं अपनी रणनीति ;
अब तो कई टुकड़ों में बंट गई है राजनीति !
किसको अपना मानें अब सब पक्ष-विपक्ष ;
जनमत जाने ना क्या करे किसको माने दक्ष !
फिर से टूटे फिर जुड़ने लगे लिए मन में लपेट ;
कौन दल ले जाएगा जनमत कौन लेगा वोट समेट!
चाहे जीते कोई भी दल उनका प्रपंच ना बदलेगा ;
ना जाने इसमें कबतक एकलव्य का अंगूठा कटेगा!