क्या यह कलयुग की दस्तक नही?
क्या यह कलयुग की दस्तक नही?
यह मन के जुगनू हमें कभी
अस्त व्यस्त तो कभी मस्त मस्त रखते हैं,
लेकिन हम अंदर ही अंदर कब भस्म हो जाते हैं,
पता ही नहीं लगता।
कुछ मस्तकों के झुंड तो कहते हैं
कि यह ज़मीन ही स्वर्ग है,
सारा ब्रह्मांड इसी पर वास करता है,
तो कुछ झुंड सोंचते हैं कि
नर्क इससे बदतर कैसे हो सकता है?
कोई लम्हा हमें चुपचाप
उस मोती का ज्ञान कराता है
जो वषों से सीप में कैद,
सागर के थपेड़ों को सहते सहते,
कब मोती बन जाता है,
उससे पता ही नहीं चलता।
तो कोई लम्हा आकाश की सैर कराता है,
जहां चांद बादलों में छुप कर
अपनी चांदनी संग अठखेलियां करता है।
ऊपर सूर्य इतना तेजवान,
अपनी प्रकाश लिए सारी सृष्टि को
सोने की चमक से नहलाता है;
आकाश इतना विशाल और भव्य,
चांद, सितारे, नक्षत्र, न जाने क्या क्या
अपने सीने में समाए बैठा है;
और पांव तले धरती,
सहनशीलता से भरी,
सारे जीवित जगत को संभाले
न जाने खुद क्या क्या सहती है।
सृष्टि के ये सारे अंश इतने असीम,
इन्हें कोई गुमान नही,
न ही कोई अभिमान, भला कैसे?
और इस ब्रह्माण्ड में इंसान,
इस सृष्टि का एक संक्षिप्त अंश,
जिसका अहम है कि
वह चांद, मंगल को अपने वश में
कर चुका है, जो सत्यता है,
तो व्यवहार में दोहरापन, दाव - पेंच खेलना,
क्या किसी देवीय शक्ति ने उसको
इसकी अनुमति दी है?
हर तरफ दुर्योधन और धृतराष्ट्र क्यों पनप रहे है?
क्यों कैकियों का राज है?
दशरथ की जुबान तालों में कैद क्यों है?
न कोई राम है, न ही कोई कृष्ण!
न लक्ष्मण, ना ही कोई अर्जुन!
कोई स्पष्टीकरण मांगे तो आवाज़ दबाने का चलन!
गर कोई झूले से लेकर अर्थी तक का चक्रव्यूह
समझ कर जागरूक हो चुका है,
तो वह अहंकारी!
वार्तालाप उम्मीद से बहुत दूर!
अगर कुछ प्रचलित है तो विवाद!
एक नन्ही सी जान ने
गिली डंडे के खेल से
बाहर निकल कर, जिंदा रहने के लिए ,
जिंदगी की राह में कितनी ही चालें सीखनी है ,
क्या यह कलयुग की दस्तक नही?
लेकिन जब तक स्पष्टता व वार्तालाप न हो,
वातावरण भयभीत करता रहेगा,
इंसान इंसानियत भूलता जायेगा!.....