संभलो और संभाल लो
संभलो और संभाल लो
काम क्रोध से फुर्सत मिले
तो अंतर्मन को खंगाल लो
जीवन नया डोल रही है
संभलो और संभाल लो
दमकते हुए क्षितिज को देखो
वह भी अस्तित्व खोजता है
रोशन प्रांगण लगता तब है
घर आंगन जब बहाल हो
नभ का शीश भी झुकता है
मिट्टी से मिट्टी मिलती है
जिस और देखो बसेरा होगा
हाथ में सत्य की जब मशाल हो
व्यक्तित्व किसी का क्या पूछे
मन की वाणी जहाँ धूमिल हो
परछाइयां भी कठबोली लगती
घूमती फिरती जैसे कंकाल हो
सिरहन दौड़ती है बदन में
नया आचरण सवालिया है
बिकता तभी है पाक आंचल
भूखा जब कोई अयाल हो
चिथड़े चिथड़े हुई मानवता
शिखर पर हैं कुसंगतियां
मानव पशुओं से बद्तर है
अश्लील जब उसके खयाल हो
इस नए सामाजिक चित्रण में
हम सब की भागीदारी है
यहां दोष किसी एक का नहीं
हजूम में खड़े जब सवाल हो
विचारों की एक श्रृंखला हो
मन भेद - भाव रहित हो
अनुभव की पावन नदियां हो
तब शायद कुछ कमाल हो
जीवन नया संभल जाएगी
विश्व नया जब बहाल हो.....
✍🏼 रतना कौल भारद्वाज
