शंखचूड वध
शंखचूड वध
जय अनलेश्वर भूतपति ,भक्त ह्रदय तव धाम।
स्वीकारे मुझ दीन का ,वारंवार प्रणाम ।।
समर आप का मै लिखूं, भाव जगा है आज।
पूर्ण काज कर राखिए ,अपने जन की लाज।।
शंखचूड दानव अति भारी ,
तेहि ते सुर नर सकल दुखारी।
देहि ताडना हरि जन जानी,
सुर नाशक अति ही अभिमानी ।
सकल श्रृष्टि बहुविधि दुख पावै,
जे तेहि सम तेही सुख पावै।
इन्द्र लोक मे करत विचारा,
देवराज अस वचन उचारा।
अशुरेश्वर है अति वलशाली,
शिव कर भक्त देव कुल घाली।
तेहि कर वध को करिहै जाही,
मोरे समझ परत कछु नाही।
मन्त्रिन तव कह अस मन आवै,
लक्ष्मी पति ही विपति नसावै।
तुरतहि सुर समाज तहं गवना,
जह कीन्हेउ लक्ष्मीपति शयना।
जोरि पाणि बहु स्तुति कीन्ही ,
शंखचूड वध विनती कीन्ही ।
अशुरेश्वर वध निश्चित अहै,
करिहै शिव तव हरि अस कहै।
सब सुर हरि संग तहां सिधाए,
आए जहं शिव धाम सुहाए।
शीश नाइ कह तव सब लोगा,
रक्षा करहु तजहु प्रभु योगा।
अशरण शरण आप त्रिपुरारी ,
केहि कारण सुधि मोरि विसारी।
शंखचूड दानव जो अहई,
तेहि ते हम सुर बहुदुख लहई।
दया करहु प्रभु निज जन जानी ,
हतहु काज हित सुर अभिमानी ।
तब शंकर अस बचन उचारा ,
निज ग्रह जाहु करब भय क्षारा ।
ताहि निपातौ समर में , जो सुर नर अरि होय ।
सोई काज करौ जेहि ,पाप हीन महि होय ।।
समाचार जब असुरन पावा ,
तब असुरेश्वर दूत पठावा ।
चला दूत हिय सुमिरि पुरारी ,
देखहु जाई भगत भय हारी ।
आई शंभु पग वन्दन कीन्हा ,
प्रभु दानेश्वर आशिष दीन्हा ।
कह दानेश्वर तव कर जोरी ,
सुनहु नाथ एक विनती मोरी ।।
शंखचूड मोहि इहां पठावा ,
दूतकर्म लगि प्रभु मै आवा ।
तव हंसि शंकर कहा असुरवर ,
कहहुं कथा एक सुनहु ध्यान धर ।
धर्म पिता ब्रम्हा जग कहई ,
तिन मारीचि नाम सुत लहई ।
तिन कश्यप नामहि सुत पावा ,
कन्या तेरह दक्ष सो पावा ।
तिन महं दनु नामक जो नारी ,
सो कश्यप कुल की उजियारी ।
तेहि ने चारि पुत्र जग जाए ,
कश्यप प्रमुदित दान लुटाए ।
नाम विप्रचित केर कुमारा ,
महाबली अति अज्ञ अपारा ।
दम्भ नाम सुत तेहि एक पावा ,
तेहि तुम दानेश्वर को पावा ।
द्वापर कृष्ण जन्म जब लयऊ ,
तब तुम तिन कर पार्षद भयऊ ।
दीन राधिका तो तो कहं शापा ,
पायहु असुर वंश तेहि पापा ।
देववृन्द सन बैर विहाई ,
निर्भय होहु असुर समुदाई ।
कह दानेश्वर सुनु सुख अयना ,
करहु मोर शंका कर समना ।
सुर अरु असुर सकल जग माहीं ,
दोनहु को तुम सम कोउ नाहीं ।
समदर्शी तव नाम कहावा ,
फिरि केहि काज भेद मन आवा ।
सागर मन्थन जब द्वौ कीन्हा ,
तव अमृत देवन लै लीन्हा ।
भस्मासुर तुम नाथ मिटायो ,
आपु जलंधर असुर संहार्यो ।
देव पक्ष केहि कारन लीन्हा,
असुर विनाश नाथ किमि कीन्हा ।
तब शंकर कह सुनु दानेश्वर ,
रहहि भक्त वश सदा महेश्वर ।
देववृन्द जब -जब दुख पावा,
करुण कथा तव मोहि सुनावा ।
तिन कर प्रीति देखि अति भारी ,
करहुं सदा तिन कै रखवारी ।
भक्त वश्य मो कहं तुम जानहु,
तिन हित सदा हि तत्पर मानहु ।
ब्रम्हा आर्तृनाद जब कीन्हा ,
तव हरि मधुकैटभ वध कीन्हा ।
जब प्रह्लाद लहेउ दुख भारी,
तव नरसिंह रूप हरि धारी ।
ताहि निपाति कीन्ह तहं रक्षा,
देखि न जाइ भक्त असुरक्षा ।
शुम्भ त्रिपुर सब को हत्यो , भक्ति हेतु हे दैत्य ।
जाइ कहहु निज नाथ से , मै भक्तन कर भृत्य ।।
जा असुरेश्वर से कहो , करहु सो जो मन भाय ।
भक्त काज लगि धरा से , सब दुख देव मिटाय ।।
शिव ढिग से दानेश्वर जाई,
शंखचूड को बात बताई ।
तव असुरेश आमात्य बुलाई,
समर हेतु सेना सजबाई ।
सजि चतुरंग सेन रण आई,
चले देव शिव आशिष पाई ।
द्वौ दल समर भूमि में आए,
भयी शंख ध्वनि वीर सिधाए ।
इन्द्र वीर वृषपर्वा साथा,
सूर्य विप्रचित भट के साथा ।
दम्भ विष्णु विश्वकर्मा भयंकर,
यम संहारक धर्म पुरन्दर ।
चचला पवन औ मृत्यु भयानक,
शनि रक्ताक्ष वरुण कालम्बिक ।
भिङे वीर तजि जीवन आशा ,
क्रोध अनअनल जिमि लेहि उसासा ।
गदा चक्र अरू शक्ति शतघ्नी,
पट्टिश परशु पाश के धनी ।
समर वीर आए विकराला,
वीर वेश मानहु सब काला ।
बहुविधि भयो युद्ध अति भारी,
कटि कटि गिरहि वीर वल धारी ।
असुरन कीन्हो समर भयंकर,
देववृन्द सब भये भयातुर ।
तजि रणभूमि गये शिव पाही,
रक्षा करहु विकल हुइ कहही ।
तब शंकर तिन धीर बंधावा,
सुत स्कंधहि समर पठावा ।
निज को तेज गणन प्रविशायो,
कोलाहल गण जाइ मचायो ।
धाए गण करि शिव को ध्याना,
मारहि शत्रु करहिं ध्वनि नाना ।
तेही समय कालिका आई,
काटि शीष तिन माल बनाई।
करि लीला बहु असुर उठाई ,
मुख प्रवेशि ले असुर चबाई ।
करि कुमार तब क्रोध अपारा,
कोटिन दानव करहिं संहारा ।
समर भूमि ते सेना गयी,
हुए कुमार कालिका विजयी ।
शंखचूड विमान चढि आवा,
विविध अस्त्र निज संग लै आवा ।
आए संग तेहि अगणित वीरा,
वाणन वर्षा करहिं गम्भीरा ।
देव सकल भागन तब लागे ,
तव कुमार आए तेहि आगे।
कीन्हेउ तब उन युद्ध भयंकर,
मानहु जैसे प्रभु प्रलयंकर ।
शंखचूड माया उपजायो ,
कार्तिक वाहन धनुष गंवायो ।
भास्कर सम एक शक्ति चलाई ,
कार्तिक गिरे भूमि हहराई ।
कछु क्षण बाद होश जब आवा,
मातु पिता को शीश नवावा ।
चढि विमान पुनि माया मेटी,
मेघ अस्त्र से अगिनि समेटी ।
कवच किरीटि असुर रथ भंजा,
कीन्हेउ मूर्क्षित करि अति रंजा ।
मूर्छा गयी असुर जब जागा,
छाङन शक्ति भयंकर लागा ।
ब्रम्ह शक्ति कर कीन्ह प्रहारा,
राखी लाज अचेत कुमारा ।
तब काली तेहि अंक उठावा,
क्षणमहुं शंभु निकट पहुंचावा।
आयो वीरभद्र तव भारी,
असुर सेन तेहि अति संहारी ।
प्रतिभट वीरभद्र जो मारहि ,
शिव गण रक्त पान करि डारहि।
वीरभद्र कालिका भयंकर,
देखि असुर सब भागे डर डर।
शंखचूड आयो दरम्याना ,
अभय देन असुरन को दाना ।
शक्ति भयंकर प्रलयंकारी,
शंखचूड पर काली मारी ।
तेहि तब वैष्णवास्त्र कर लीन्हा,
शक्ति को शक्ति हीन करि दीन्हा ।
ब्रम्ह नारायण अस्त्र चलावा,
असुरेश्वर तिन को शिर नावा ।
बहु प्रकार निज रक्षा करै,
विविध अस्त्र काली को मारै ।
तब काली निज मुख फैलाई,
अस्त्र असुर सब लेहि चबाई ।
वैष्णवास्त्र जब असुर चलावा ,
महेश्वरास्त्र से ताहि मिटावा ।
तबहि गिरा भयी नभ ते घोरा,
जाहु कालि अब काज न तोरा ।
शंखचूड बध को बिसराई,
बचे असुर तुम खाबहु जाई ।
शंखचूड सम्मुख हर आए,
वीरभद्र भैरों संग लाए ।
शिवहि प्रणाम कीन्ह शिरु नाई ,
कीन्हेउ युद्ध वरणि नहि जाई ।
विरूपाक्ष तब कोपहि कीन्हा,
शत्रुन को निशस्त्र करि दीन्हा ।
गर्जन करहिं सकल गण भारी,
असुर पाव तब भय अति भारी ।
शिव पर छोङी शक्ति भयंकर ,
क्षेत्रपाल ने दयी नष्ट कर ।
असुरेश्वर माया फैलाई ,
भ्रमित भये सब देव सहाई ।
शिव अमोघ त्रिशूल चलावा,
बधि सो असुर पास शिव आवा ।
देव काज हित शंभु ने , किया असुर संहार।
नभ मण्डल में छा गयी , हर की जय जयकार ।।