श्रीमद्भागवत -१९६; विदर्भ के वंश का वर्णन
श्रीमद्भागवत -१९६; विदर्भ के वंश का वर्णन


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
राजा विदर्भ की पत्नी भोज्या
तीन पुत्र उसके हुए थे
कुश, क्रथ और रोमपाद नाम था।
रोमपाद एक श्रेष्ठ पुरुष थे
उनके पुत्र ब्रभु नाम के
ब्रभु का कृति, उसका उशिक और
चेदि उशिक के पुत्र थे।
दमघोष और शिशुपाल आदि हुए
इसी चेदि के वंश में
क्रथ का पुत्र हुआ कुन्ती
धृष्टि पुत्र हुए कुन्ती के।
धृष्टि के निवृति, निवृति के दशार्ह
और दशार्ह के व्योम हुआ
व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति
विकृति का भीमरथ, नवरथ भीमरथ का।
नवरथ का दशरथ, उसका शकुनि और
शकुनि के कराम्भि, देवरात कराम्भि के
देवरात से देवक्षत्र, उससे मधु
मधु से कुरूवश, उससे अनु हुए।
अनु के पुरुहोत्र, पुरुहोत्र के आयु
सात्वत का जन्म हुआ आयु से
भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध
अंधक और महाभोज सात पुत्र उनके।
भजमान की दो पत्नियां थीं
एक से तीन पुत्र हुए
निम्लुची, किंकिश और धृष्टि
उन तीनों के ये नाम थे।
तीन पुत्र दूसरी पत्नी के भी
सताजित , सहस्रजित और आयुताजित थे
देववृध के पुत्र का नाम ब्रभु
दोनों बहुत ही ज्ञानवान थे।
दोनों के सम्बन्ध में यह बात कही जाती
दूर से जैसा सुन रखा हमने
वैसा ही निकट से देखने में भी है
ब्रभु श्रेष्ठ है मनुष्यों में।
देवावृध देवताओं के समान है
इसका कारण ये कि इनसे
उपदेश लेकर चौदह हजार चौंसठ
मनुष्य परमपद प्राप्त कर चुके।
महाभोज भी धर्मात्मा था बड़ा
सात्वत के पुत्रों में से
भोजवंशी यादव हुए थे
उसी महाभोज के वंश में।
परीक्षित, वृष्णि के दो पुत्र हुए
सुमित्र और युधाजित नाम के
शिनि और अनमित्र जो
युधाजित के ये दो पुत्र थे।
अनमित्र के निम्न पुत्र हुआ
और निम्न के दो पुत्र थे
यशस्वी दोनों, ये प्रसिद्ध हैं
सत्राजीत और प्रसेन नाम से।
अनमित्र का एक और पुत्र शिनि था
इस शिनि से सत्यक का जन्म हुआ
इसी सत्यक के पुत्र ययुधान थे
जो प्रसिद्ध हुए सात्यकि के नाम से।
सात्यकि का जय, जय का कृपी
कृपी को पुत्र युगांधर हुए थे
अनमित्र के तीसरे पुत्र वृष्णि के
शवफल्क, चित्ररथ दो पुत्र थे।
शवफलक की पत्नी गांदिनी थी
उसके श्रेष्ठ अक्रूर हुए थे
इसके अतिरिक्त बारह और पुत्र
सुचीरा नाम की कन्या भी उनके।
देववान और उपदेव नाम के
दो पुत्र थे अक्रूर के
पृथु, विदुरथ आदि बहुत से पुत्र
शवफल्क के भाई चित्ररथ के।
वृष्णिवंशिओं में ये पुत्र सब
श्रेष्ठ बहुत हैं माने जाते
कुकुर, भजमान, शिवि, कंबलबर्हि
चार पुत्र सात्वत के पुत्र अन्धक के।
उनमें कुकुर का पुत्र वहिन था
वहिन का विलोम, कपोतरोमा उसका
उसका जो पुत्र अनु था उसकी
तुंबरू गन्धर्व के साथ थी मित्रता।
अनु का पुत्र अन्धक, दुन्दुभि उसका
दुन्दुभि का अरिघोत ,पुनर्वसु उसका
पुनर्वसु के आहुकी नाम की कन्या
और पुत्र आहुक नाम का।
आहुक के देवक और अग्रसेन
देवक के चार पुत्र हुए
देववान, उपदेव, सुदेव और देववर्धन
ये सब उनके नाम थे।
सात बहनें भी थीं उनकी
धृतदेवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा
देवरक्षिता,सहदेवा और देवकी
इन सातों का नाम था।
वासुदेव ने विवाह किया इन सबसे
अग्रसेन के नौ लड़के थे
कंस, सुनामा, व्यग्रोध, कंक, शंकु
सुहु, राष्ट्रपाल, सृष्टि, तुष्टिमान नाम के।
कंसा, कंसवती, कंका, शुरभु, राष्ट्र्पालिका
पांच कन्याएं भी थीं अग्रसेन की
देवभाग आदि वासुदेव के
छोटे भाईओं से व्याही गयीं थीं।
चित्ररथ के पुत्र विदुरथ से शूर हुआ
शूल से भजमान, शिवि भजमान से
शिवि से स्वयम्भोज , उससे हृदीक हुआ
हृदीक के तीन पुत्र हुए।
देववाहु, सत्धन्वा और कृतवर्मा ये थे
देवमीढ़ के पुत्र शूर ने
पत्नी मारिषा के गर्भ से
दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये।
वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा,आनक, सृंजय
श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक नाम के
ये सब के सब दस पुत्र
बड़े ही पुण्यात्मा थे।
वासुदेव के जन्म के समय देवताओं के
नगाड़े स्वयं ही बजने लगे थे
अतः आनकदुन्दुभि भी कहलाया
वे ही भगवान् कृष्ण के पिता हुए।
पांच बहनें भी थीं वासुदेव आदि की
पृथा ( कुन्ती ), श्रुतदेव, श्रुतकीर्ति
श्रुतश्रवा, राजधिदेवी नाम कीं
पिता ने कुंती एक मित्र को दी थी।
कुन्ती के पिता का वो मित्र कुन्तिभोज
कोई संतान नहीं थी उसके
गोद दी थी कन्या अपनी
इसीलिए शूरसेन ने उसे।
प्रसन्न करके दुर्वाशा ऋषि को
पृथा ने एक विद्या सीख ली
कैसे बुलाया जाये देवताओं को
और एक दिन परीक्षा को विद्या की।
भगवान् सूर्य का आहवान किया
उसी समय वो वहां आ पहुंचे
कुंन्ती का ह्रदय विस्मय से भर गया
सामने देख सूर्य को खड़े हुए।
कहें भगवान् मुझे क्षमा
कीजिये
मैंने तो परीक्षा करने के लिए
इस विद्या का प्रयोग किया है
आप अब पधार हैं सकते।
सूर्य देव कहें, हे देवी
मेरा दर्शन निष्फल नहीं जाता
इसलिए सुंदरी मैं तुमसे
पुत्र उत्पन्न हूँ करना चाहता।
हाँ, इसका उपाय कर दूंगा
कि दूषित न हो योनि तुम्हारी
यह कह गर्भ स्थापित कर दिया
और स्वर्ग चले गए तभी।
उसी समय एक तेजस्वी बालक
उत्पन्न हुआ था उस गर्भ से
देखने में सूर्य समान वो
पृथा डर गयी लोक निंदा से।
इसलिए जल में छोड़ दिया
अपने उस नन्हे बालक को
परीक्षित उसी पृथा का विवाह
पाण्डु से हुआ, तुम्हारे परदादा जो।
परीक्षित पृथा की छोटी बहन जो
श्रुतदेवा का विवाह वृद्धशर्मा से हुआ
और उसके गर्भ से ही
दन्तवक्त्र का जन्म हुआ।
हिरण्याक्ष हुआ था ये ही
पूर्व में सनकादि के शाप से
केकय देश के राजा धृष्टकेतु ने
विवाह किया था श्रुतकीर्ति से।
उसे पांच कैकय राजकुमार
सन्तर्दन आदि हुए थे
राजधिदेवा का विवाह जयसेन से
उसके दो पुत्र हुए थे।
विन्द और अनुविन्द नाम के
दोनों ही अवन्ति के राजा हुए
श्रुतश्रवा का पाणिग्रहण किया
चेदिराज दमघोष ने।
उसका पुत्र शिशुपाल था
और वासुदेव के भाई देवभाग ने
पत्नी कंसा के गर्भ से
चित्रकेतुऔर बृहदबल उत्पन्न किये।
देवश्रवा की पत्नी कंसवती से
सुवीर, इषुमान दो पुत्र हुए
सत्यजीत और पुरुजित दो पुत्र
आनक की पत्नी कंका से हुए थे |
सृंजय की पत्नी राष्ट्रपालिका से
वृष, दुर्मर्षण आदि पुत्र उत्पन्न हुए
इसी प्रकार श्यामक की पत्नी शुरभु से
हरिकेशा, हिरण्याक्ष दो पुत्र हुए।
मित्रकेशी अप्सरा के गर्भ से
वत्सक के भी वृक अदि पुत्र हुए
तक्ष, पुष्पक और शाल आदि हुए
वृक के दूर्वाक्षी के गर्भ से।
शमीक की पत्नी सुदामिनी के भी
सुमित और अर्जुनपाल आदि हुए
ऋतधाम और जय हुए
कंक की पत्नी कर्णिका से।
पौरवी, रोहणी, भद्रा, मदिरा, रोचना
इला और देवकी सब ये
बहुत सी पत्नियां थीं
आनकदुन्दुभि वासुदेव के।
बलराम,गद, सारण,दुर्मद, विपुल
धुवमेर, कृत हुए रोहिणी के गर्भ से
भूत, सुभद्र, भद्रवाहु, दुर्मद, भद्रआदि
बारह पुत्र हुए पौरवी के।
नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि
महिमा के गर्भ से उत्पन्न हुए
केशी नाम का एक पुत्र
उत्पन्न हुआ था कौशल्या के।
उसके रोचना से हस्त, हेमंगद आदि
तथा अरुबालक आदि को इला से
इन पुत्रों को उत्पन्न किया
जो प्रधान यदुवंशी थे।
विपृष्ठ नाम का एक ही पुत्र था
वासुदेव जी के धृतदेवी से
श्रम, प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए
उनको पत्नी शांतिदेवा से।
उपदेवा के कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए
श्रीदेवा के छ पुत्र हुए
वसु, हंसऔर सुवंश आदि ये
गद आदि नौ पुत्र हुए देवरक्षिता के।
धर्म के जैसे आठ वसुओं को
उत्पन्न किया, वैसे ही वासुदेव ने
सहदेवा से पुरुविश्रुत आदि
आठ पुत्र उत्पन्न किये थे।
देवकी के गर्भ से भी उन्होंने
उत्पन्न किये आठ पुत्र थे
कीर्तिभान, सुषेण, भद्रसेन,ऋजु
संमर्दन, भद्र, बलराम, कृष्ण ये।
कृष्ण जो उनके आठवें पुत्र थे
वे थे स्वयं भगवान् ही
परीक्षित, तुम्हारी दादी सुभद्रा भी
कन्या थी देवकी की ही।
धर्म का ह्रास और पाप की वृद्धि
होती है जब जब संसार में
तब तब भगवान् श्री हरी
पृथ्वी पर अवतार ग्रहण करें।
राजाओं का वेश धारण कर
सेना से पृथ्वी को रौंदा असुरों ने
भगवान् मधुसूदन अवतीर्ण हुए
पृथ्वी का भार उतारने के लिए।
पृथ्वी का भार उतरने के साथ ही
अनुग्रह करने के लिए भक्तों पर
अपने यश का विस्तार भी किया
भगवान् ने, जो है परम पवित्र।
जिसका गान और श्रवण करने से ही
दुःख, शोक, अज्ञान नष्ट हो
उनका यश श्रेष्ठ तीर्थ है
संतों के कानों के लिए अमृत वो।
परीक्षित, भोज, वृष्णि, अन्धक, मदु, शूरसेन
दशर्ह, कुरु, सृंजय और पांडुवंशी वीर ये
भगवान् की लीलाओं की
आदर से सराहना करते रहते थे।
आनद से सराबोर कर दिया
मनुष्यलोक को अपनी लीलाओं से
उनके मुख की शोभा निराली
देख, नर नारी आनंदित होते।
नेत्र निरंतर उनकी आभा का
पान करने पर तृप्त न होते
भगवान् अवतीर्ण हुए मथुरा में
रहने फिर गोकुल चले गए।
नंदबाबा के घर गोकुल से फिर
ग्वाल,गोपी, गौओं को सुखी कर
मथुरा फिर से लौट आये वो
लीला करने अपनी वहांपर।
व्रज में, मथुरा तथा द्वारका में रहकर
अनेकों शत्रुओं का संहार किया
कौरवों पांडवों के बीच युद्ध में
पृथ्वी का बहुत सा भार उतर दिया।
युद्ध में अपनी दृष्टि से ही
बहुत सी सेना का ध्वंश किया
आत्मतत्व का उपदेश उद्धव को दे
परमधाम को प्रस्थान किया।