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Surendra kumar singh

Classics

4  

Surendra kumar singh

Classics

एक रोमांच सा लगता है

एक रोमांच सा लगता है

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एक रोमांच सा लगता है पृथ्वी पर मनुष्य का होना

उसके न होने के इतने सारे प्रबन्धों के बावजूद।


जैसे इतने हथियार हैं पृथ्वी पर वैज्ञानिकों के बनाये हुये कि

मनुष्य क्या पृथ्वी एक बार फिर धधकते हुये 

आग गोले में तब्दील हो सकती है।


इतना गुस्सा है आदमी में आदमी के प्रति कि

मौका मिले तो वो निगल जाय अपनी ही प्रजाति के

आदमी को इतनी नफरत है आदमी में आदमी प्रति कि

अगर बस चले तो पेट्रोल छिड़क कर जला दे।


इतनी साजिशें है आदमी की आदमी के प्रति कि

वो उसके देश को बर्बाद कर दे।

ऐसे में आदमी का पृथ्वी पर होना

एक रोमांच सा लगता है।


लगता कोई युद्ध चल रहा है पृथ्वी पर

आदमी को लाने वाली प्रक्रति और आदमी के बीच।

अब इसे आत्मघात कहें या तरक्की का प्रतिमान,

आदमी आदमी को मिटा देना चाहता है

और प्रकृति आदमी की सुरक्षा के लिये आमादा है।


रोमांच तो है पृथ्वी पर मनुष्य का होना और ये

रोमांच और घनीभूत हो रहा है प्रक्रति मनुष्य के

विरुद्ध मनुष्य को बचाये रखने का यत्न कर रही है।


उसकी इस कोशिश को न तो मनुष्य देख पा रहा है नहीं

कृतज्ञता ज्ञापित कर पा रहा है।

थोड़े से लोग हैं जरूर जो देख रहे हैं,

समझ रहे हैं और शांति बनाये रखने के 

सतत प्रयत्न कर रहे हैं।


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