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Ajay Singla

Classics

4.2  

Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१७२; भगवान् के मत्स्य अवतार की कथा

श्रीमद्भागवत -१७२; भगवान् के मत्स्य अवतार की कथा

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राजा परीक्षित ने पूछा कि

कर्म बड़े अद्भुत भगवान् के

एक बार योगमाया से अपनी

मत्स्य अवतार धारण किया उन्होंने।


बड़ी ही सुंदर तब लीला की थी

सुनना चाहता उस आदि अवतार को

मत्स्य योनि यों तो निन्दित है

तमोगुण और परतंत्रता से भी युक्त वो।


कर्मबन्धन में बंधे जीव की तरह

मत्स्य का रूप क्यों धारण किया

भगवान् तो सर्वशक्तिमान हैं

कृपाकर वर्णन कीजिये ये लीला।


शुकदेव जी कहें, परीक्षित यों तो

सबके एकमात्र प्रभु हैं हरि

देवता, ब्राह्मण आदि की रक्षा को

शरीर धारण करते वे फिर भी।


ब्रह्म नामक नैमित्तिक प्रलय

हे परीक्षित, हुआ था एक तब

पिछले कलप के अंत में

ब्रह्मा जी सो गए थे जब।


डूब गए थे समुन्द्र में

उस समय सब भूर्लोक आदि

प्रलय काल आ जाने के कारण

ब्रह्मा जी को थी नींद आ रही।


सोना चाह रहे थे वे, उसी समय

वेद उनके मुख से निकल पड़े

हयग्रीव दैत्य ने चुरा लिया उनको

पास ही रहने वाला वो उनके।


चेष्टा यह जान ली थी

हयग्रीव की भगवान् हरि ने

इसीलिए उन्होंने ग्रहण किया था 

मत्स्य नामक अवतार ये।


परीक्षित, राजा एक सत्यव्रत नाम के

उस समय थे तपस्या कर रहे

वही सत्यव्रत वर्तमान कल्प में

विख्यात हुए श्राद्धदेव के नाम से।


कृतमाला नामक नदी में एक दिन

राजर्षि जल से तर्पण कर रहे

एक छोटी सी मछली आ गयी

उनकी अंजलि के जल में।


सत्यव्रत ने उस मछली को

नदी में डाल दिया था फिर से

बड़ी करुणा के साथ मछली ने

कहा था ये फिर सत्यव्रत से।


'' राजन, आप बड़े दयालु हैं

आप तो ये जानते ही हैं कि

जलचर जीव खा जाते हैं

अपनी जाती वालों को भी।


मैं अत्यंत व्याकुल हो रही

न छोडो मुझे आप नदी में ''

सत्यव्रत को ये पता नहीं था कि

भगवान् उनपर प्रसन्न हो रहे।


न पता उनको कि मछली के रूप में

श्री हरि ही हैं पधारे

इसलिए मन ही मन संकल्प ले लिया

मछली की रक्षा का उन्होंने।


दीनता भरी बातें सुन मछली की

रख दिया उसे जल के पात्र में

और अपने साथ ले गए

उसे आश्रम पर वो अपने।


एक रात में ही वह मछली 

इतनी बढ़ गयी कमंडलु में 

कि उसके लिए स्थान ही न रहा 

राजा से फिर कहा मछली ने। 


''कष्टपूर्वक भी नहीं रह सकती 

अब मैं इस कमंडलु में 

सुखपूर्वक रह सकूं जहाँ मैं 

बड़ा स्थान कोई नियत कर दें''। 


पानी के बहुत बड़े मटके में 

राजा ने उस मछली को रख दिया 

दो घडी में ही तीन हाथ बढ़ गयी 

फिर से उसने था राजा को कहा। 


पर्यापत नहीं मेरे लिए स्थान ये 

मेरे योग्य कोई बड़ा स्थान दें 

सत्यव्रत ने वहां से उठाकर 

डाल दिया उसे सरोवर में। 


थोड़ी देर में इतनी बढ़ गयी वो 

महामत्स्य का आकर धारण कर 

कहे राजन, रक्षा कीजिये 

मुझे चाहिए अगाध सरोवर। 


कई बड़े बड़े सरोवरों में 

एक एक कर उसे ले गए राजा 

परन्तु उतनी ही बड़ी बन जाती 

जितना बड़ा सरोवर होता। 


 लीलामतस्य को अंत में 

राजा ने समुन्द्र में छोड़ दिया 

'' समुन्द्र में मुझे मत छोड़िये ''

मत्स्य ने सत्यव्रत से कहा। 


''समुन्द्र में बड़े मगर हैं रहते 

वो सब मुझे खा जायेंगे ''

मत्स्य भगवान की मधुर वाणी सुन 

सत्यव्रत मोहमुग्ध हो गए। 


कहें कि मत्स्य का रूप धर 

कौन हैं आप जो मुझे मोहित करें 

एक दिन में इतना विस्तार करे  

ऐसा जलचर जीव न देखा मैंने। 


आप सर्वान्तर्यामी अविनाशी 

श्री हरि हैं अवश्य ही 

आपको मेरा नमस्कार है 

चरण वंदना करूं आपकी। 


यद्यपि आपके लीलावतार सब 

प्राणियों के अभ्युदय के लिए होते 

तथापि ये जानना चाहता हूँ 

यह रूप ग्रहण किया किस उदेश्य से। 


जो रूप आपने इस समय 

धारण कर दर्शन दिया मुझे 

यह रूप बहुत अद्भुत है 

आपकी मुझपर बड़ी कृपा ये। 


श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित 

यह प्रार्थना की जब सत्यव्रत ने 

मत्स्य भगवान ने प्रार्थना सुन 

अपने भक्त को कहा उन्होंने। 


आज से सातवें दिन जब 

प्रलय समुन्द्र में आएगी 

तीनों लोक डूब जाएंगे 

तुम्हारे पास एक नौका आएगी। 


बहुत बड़ी नौका वो होगी 

उस समय तुम समस्त प्राणियों के 

सूक्षम शरीर लेकर चढ़ जाना 

सप्तऋषियों संग उस नौका में। 


रख लेना उस समय साथ तुम 

समस्त धान्य तथा बीजों को 

होगा सब और एकमात्र महासागर 

और कोई प्रकाश भी न हो। 


ऋषिओं की दिव्य ज्योति के सहारे 

बिना किसी विकलता के तुम 

उस बड़ी नाव पर चढ़कर 

विचरण करना चारों और तुम। 


प्रचंड आंधी चलने के कारण 

जब नाव डगमगाने लगे 

इसी रूप में मैं आऊँगा वहां 

सींग से मेरे बाँध लेना उसे। 


वासुकि नाग की रस्सी बनाना 

तुम सबको मैं उससे खींचूंगा 

जब तक ब्रह्मा जी की रात रहेगी 

समुन्द्र में विचरण करूंगा। 


उस समय जब तुम प्रशन करोगे 

उपदेश दूंगा तब मैं तुम्हे 

परब्रह्म नामक वास्तविक महिमा तब 

प्रकट होगी तुम्हारे ह्रदय में। 


राजा सत्यव्रत को दे आदेश ये 

भगवान् फिर अंतर्धान हो गए 

जो भगवान् ने आज्ञा दी थी 

उस समय की वो प्रतीक्षा करने लगे। 


राजा भगवान् का चिंतन कर रहे 

इतने में वो समय भी आ गया 

राजा ने था तब ये देखा 

समुन्द्र मर्यादा छोड़ बढ़ रहा। 


प्रलयकाल के मेघ बरस रहे 

देखते ही देखते पृथ्वी डूबने लगी 

राजा भगवान् की आज्ञा का स्मरण करें 

देखा कि वो नाव भी आ गयी। 


धान्य और बीजों को लेकर 

सप्तऋषिओं के साथ में 

राजा सवार हो गए नाव पर 

राजा को तब कहा सप्तऋषिओं ने। 


कहा राजन, भगवान् का ध्यान करें 

इस संकट से बचाएंगे वही 

और हमारा कल्याण करेंगे 

राजा ने भी उनकी आज्ञा मान ली। 


उसी समय उस समुन्द्र में 

भगवान् प्रकट हुए मत्स्य रूप में 

विस्तार शरीर का चार लाख कोस था 

दैदीप्यमान समान सोने के। 


शरीर में एक बड़ा सींग था 

वासुकि नाग के द्वारा बांध लिया 

नाव को उस भारी सींग से 

जैसे पहले प्रभु ने कहा था। 


भगवान् की स्तुति की राजा ने 

कहें प्रभु, जीवों का संसार के 

आत्मज्ञान ढक् गया है सारा 

उनका इस अनादि अविद्या से। 


इसके कारण ही ये संसार के 

कलेशों से हैं पीड़ित हो रहे 

जब शरण में पहुंचें आपके 

तब आपको प्राप्त कर लेते। 


अज्ञानरूप मल त्याग देता है 

जब वो आपकी सेवा में 

वास्तविक स्वरुप में अपने 

तब वो स्थित हो जाये। 


आप ही सर्वशक्तिमान हैं 

हम आपकी शरण ग्रहण करते हैं 

आत्मतत्व के जिज्ञासु हम 

आपको गुरु वरण करते हैं। 


आपसे ज्ञान प्राप्त करने को 

आया हूँ आपकी शरण में 

मेरे लिए आप अब अपने 

स्वरुप को प्रकाशित कीजिये। 


श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित 

सत्यव्रत ने जब ऐसे प्रार्थना की 

मत्स्य रुपी भगवान् ने तब 

आत्मतत्व की उसे शिक्षा दी। 


भगवान् ने अपने स्वरुप के 

सम्पूर्ण रहस्य का वर्णन करते हुए 

उपदेश दिया दिव्य पुराण का 

मत्स्य पुराण कहते हैं जिसे। 


नाव में बैठे हुए ही 

सप्तऋषिओं के साथ में 

श्रवण किया आत्मतत्व का 

संदेह रहित हो राजा ने। 


जब पिछले प्रलय का अंत हो गया 

नींद टूटी ब्रह्मा जी की जब 

भगवान् ने हयग्रीव को मारकर 

वेद छीन ब्रह्मा को दिए तब। 


ज्ञान विज्ञान से संयुक्त हो 

भगवान् की ही कृपा से 

राजा सत्यव्रत इस कल्प में 

वैवस्तव मनु हुए थे


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