अभिलाषा मन की
अभिलाषा मन की
मन की अभिलाषा अगले जन्म में
जड़ बनकर या चेतन बनकर
निर्जीव वस्तु या सजीव जीव कोई
रहूँ तेरी भक्ति में तत्पर।
धूल का कण जो बनूँ पृथ्वी का
चाहत मेरी, रज हो जाऊँ ऐसी
लिपट के चरणों में भक्तों के
मिल जाए भक्ति उन के ही जैसी।
वृंदावन की गलियों में उड़ूँ मैं
यमुना तट पर विश्राम ले लूँ
अयोध्या में सरयू के किनारे
राम लला के साथ मैं खेलूँ।
भस्म बन शिवजी पर लिपटूँ
उज्जैन में शिपरा किनारे
हिम बनकर कैलाश को ढक लूँ
दुःख दूर मेरे हों सारे।
जल बन चढ़ता रहूँ शिवलिंग पर
फूल बन सजूँ प्रभु चरणों में
प्रभु मस्तक पर सजूँ मुकुट बन
तिलक जो चमके है माथे पे।
नयनों का काजल बनूँ रघुवर का
प्रभु का सुन्दर वस्त्र पीला
अधरों से लगी बंसी कृष्ण की
गाय बन देखूँ उनकी लीला।
गंगा के जल में जलचर बनकर
मिल जाऊँ उस की धारा में
कबूतर पक्षी जो सर्वदा के लिए
अमरनाथ में डेरा डाले।
मूसक बन वाहन गणेश का
गरुड़ हो संग रहूँ विष्णु के
शिव पार्वती का नन्दी या
सिंह जो शक्ति के चरणों में रहे।
मन करता जो मनुष्य बनु तो
ऐसे रहूँ मुनि कोई जैसे
प्रभु की भक्ति में लीन सदा
कोई नाता ना हो जगत से।
तेरी भक्ति की भिक्षा चाहूँ
मैं रहूँ जिस भी योनि में
वास तेरा होगा ही मुझमें
प्रभु तुम तो रहते कण कण में।