तृष्णा
तृष्णा
तृष्णा
तृष्णाएँ तृप्त ना हों कभी
कामनाएँ हैं बढ़ती जातीं
छोटा सुंदर घर पास में है पर
बड़ा हो, सदा ये इच्छा मन की ।
बड़ा हुआ, अब इससे भी बड़ा हो
मन को फिर भी सब्र ना आया
बनते बनाते उमर बीत गयी
बूढ़ा हुआ शरीर, ये काया ।
धन लाख जब पता ना क्या करूँ
अब करोड़ है, अब भी पता नही
कर्म करूँ पर सब इसके लिए
बढ़ती जाती इसमें आसक्ति ।
मेरा घर और ज़मीनें मेरी
और मेरी ये दौलत, पैसे
डर लगता रहता सदा मुझे
छीन ना ले मुझसे कोई इसे ।
सोच समझ कर कर्म करूँ मैं
रखूँ उनसे मैं सुख की आशा
परंतु सुख ना मिलता उनसे
पूरी ना हो मेरी अभिलाषा ।
कर्म करते हुए उमर बीत गयी
क्या मैं कर्म ही ग़लत कर रहा
ना जानूँ क्या अच्छा क्या बुरा है
उम्र का सूरज भी अब ढल रहा ।
सुख मिलता भी तो क्षणिक है
दुःख फिर उसके बाद है घेरे
दुःख और सुख दोनों में सम रहूँ
ऐसा कुछ करो हे प्रभु मेरे ।
जीवन ये असत्य, असत्य ये जगत है
एक सत्य बस तू ही तू है
अपनी शरण में ले ले मुझको
परमानन्द में रहना चाहता मैं।