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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत-३०५ः वानप्रस्थ और सन्यास के धर्म

श्रीमद्भागवत-३०५ः वानप्रस्थ और सन्यास के धर्म

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श्रीमद्भागवत-३०५ः

वानप्रस्थ और सन्यास के धर्म


श्री कृष्ण कहते हैं उद्धव

गृहस्थ मनुष्य जो जाना चाहे

वानप्रस्थ आश्रम में वो

पत्नी को पुत्रों के हाथ सौंप दे।


अथवा उसे साथ ले जाकर

शस्त्रोचित से अपनी आयु का

तीसरा भाग वन में ही रहकर

व्यतीत करे ये वहीं पर अपना।


वन में रहकर पवित्र कंदमूल

और फलों से ही अपना निर्वाह करे

वस्त्रों की जगह वृक्षों की छाल या

मृगछाल से काम चला ले।


जल में घुसकर त्रिकाल स्नान करे

पड़ा रहे धरती पर ही

पंचाग्नि तापे ग्रीष्म ऋतु में

वर्षा ऋतु में बौछार सहे वर्षा की।


जाड़े के दिनों में गले तक

जल में डूबा रहे वो

इस तरह घोर साधना कर

अपना समय व्यतीत करे वो।


कंदमूल आग में भूनकर अन्यथा

समयनुसार पके हुए फलों से

ही अपना काम चलाए वो

स्वयं ही उनको लेकर आए।


दूसरे समय के संचित पदार्थों को

अपने काम में ना लाए वो

घोर तपस्या करते करते

सुखा दे वो अपने शरीर को।


एक एक नस दीखने लगती उसकी

ऋषियों के लोक में जाता वो पहले

क्योंकि तप तो मेरा ही स्वरूप है

फिर वो आ जाता है पास मेरे।


निष्काम भाव से ही करना चाहिए

अनुषठान उसको तपस्या का

और जब वो असमर्थ हो जाए

पालन करने में आश्रमोचित नियमों का।


बुढ़ापे के कारण शरीर कांपने लगे

तब यज्ञाग्नियों को अंतकरण में

आरोपित कर और मुझमें मन लगा

अग्नियों में प्रवेश कर जाए।


यदि मन में लोक, परलोक से

पूरा वैराग्य हो जाए उसका

तो सन्यास ले ले वो विधिपूर्वक

परित्याग कर यज्ञाग्नियों का।


वानप्रस्थी सन्यासी होना चाहे जो

वेद विधि के अनुसार वो पहले

आठों प्रकार के श्राद्ध और

प्राजापत्य यज्ञ से मेरा यजन करे।


अपना सर्वस्व ऋत्विज को दे दे

यज्ञाग्नियों को प्राणों में लीन करे

किसी भी स्थान, वस्तु, व्यक्तियों की

उपेक्षा करता, सवछंद विचरण करे।


यदि वस्त्र धारण करे वो

केवल एक लँगोटी डाल ले

दण्ड और कमण्डल के अतिरिक्त

कोई भी वस्तु पास ना रखे।


ये नियम सदा के लिए हैं

बस आपत्तिकाल को छोड़कर

कपड़ों से छानकर ही जल पिए

पैर रखे धरती को देखकर।


सत्य से पवित्र हुई हो

प्रतेक बात जो निकाले वो मुँह से

बुद्धिपूर्वक सोच विचार कर ही

काम करे वो अपने शरीर से।


मौन वाणी के लिए और

निश्चेष्ट स्थिति शरीर के लिए

और प्राणायाम दण्ड है मन के लिए

ये तीनों दण्ड नही जिसके पास में।


वह केवल अपने शरीर पर

बांस का दण्ड धारण करके

दण्डी नही हो जाता है

एक दिखावा ही है बस ये।


चारों वर्णों से भिक्षा ले वो

केवल अनिश्चित सात घरों से

जितना मिल जाए उतने में

उसे संतोष कर लेना चाहिए।


शास्त्रोक्त पद्धति से जिन्हें

भिक्षा का भाग देना हो देकर

जो बचे मौन होकर खा ले

ना रखे बाद के लिए बचाकर।


अधिक माँगकर भी ना लाए

पृथ्वी पर अकेले ही विचरण करे

कोई भी आसक्ति ना हो

सब इंद्रियाँ वश में रखे अपने।


मस्त रहे अपने आप में

तन्मय रहे वो आत्मप्रेम में

प्रतिकूल से प्रतिकूल स्थिति में

धैर्य रख स्थित रहे समान रूप में।


परमात्मा का अनुभव करता रहे

और सन्यासी को चाहिए

कि रहे निर्जन, एकान्त स्थान में

सदा विशुद्ध बना रहे हृदय से।


मन से सभी इंद्रियों को जीत ले

सर्वदा मुँह मोड़ ले भोगों से

और अपने आप में ही

वो परमानंद का अनुभव करे।


मेरी भावना में भरकर इस तरह

पृथ्वी पर विचरण वो करे

भिक्षा के लिए ही नगर, गाँव जाए

अधिकतर ग्रहण करे वानप्रस्थियों से।


विचारवान सन्यासी दृश्यमान जगत को

सत्य वस्तु कभी ना समझें वो

क्योंकि नाशवान है

प्रत्यक्ष ही ये जगत तो।


इस जगत में चित को ना लगाए

और लोक परलोक में भी जो

कुछ करने पाने की इच्छा हो

उससे विरक्त हो जाए वो।


विचार करे वो कि जगत

सारा का सारा माया ये

इसका बाध करके सन्यासी

अपने स्वरूप में स्थित हो जाए।


वह चाहे तो आश्रमों और

उनके चिन्हों को छोड़ छाड कर

वेदों के विधि विधानों से परे हो

सवछंद विचरण करे पृथ्वी पर।


बुद्धि मान होकर भी वो

खेले बालकों के समान ही

निपुण होकर भी जड़ बनके रहे

पागल लगे विद्वान होकर भी।


जानकार होकर भी सब वेद विधियों का

प्रभु वृति में ही रहे वो

पाखंड ना करे, तर्क वितर्क से बचे

विवाद में किसी का पक्ष ना ले वो।


इतना धैर्यवान हो कि मन में

उद्वेग ना हो किसी प्राणी के लिए

और वह स्वयं भी किसी

प्राणी को उद्विग्न ना करे।


उसकी कोई निंदा करे तो

प्रसन्नता से सह ले उसको

अपमान ना करे किसी का

किसी से भी वैर ना करे वो।


एक ही परमात्मा सब प्राणियों में

और अपने में भी स्थित वो

सबकी आत्मा वो एक ही है

क्योंकि सब पाँचभोतिक ही तो।


ऐसी अवस्था में किसी से

वैर विरोध करे, वैर विरोध अपना ही

किसी दिन जो भोजन भी ना मिले

ना होना चाहिए उसे दुखी।


और जो बराबर मिलता रहे

तो हर्षित नही होना चाहिए

मन में हर्ष, विषाद ना करे

धैर्य रखे, उसे चाहिए ये।


भोजन मिलना या ना मिलना

प्रारब्ध के आधीन हैं दोनों

भिक्षा से प्राणों की रक्षा होती

भिक्षा तो माँगनी ही चाहिए उसको।


क्योंकि प्राण रहने से ही

विचार है होता तत्व का

तत्वविचार से तत्वज्ञान हो

रास्ता खुलता है मुक्ति का।


भिक्षा, वस्त्र और बिछोने में

अच्छे, बुरे की कल्पना ना करे

शोच, आचमन आदि नियमों का

मेरी तरह ही लीला से आचरण करे।


यह तो ज्ञानवान की बात सब

वैराग्यवान की बात अब सुनो

भागवत्निष्ठ सदगुरु की शरण ग्रहण करे

संसार से विरक्त होकर वो।


गुरु की दृढ़ भक्ति करे, श्रद्धा रखे

दोष ना निकाले कभी उनमें

जब तक ब्रह्म ज्ञान ना हो 

मेरा ही रूप समझे उसे।


शान्ति, अहिंसा मुख्य धर्म सन्यासी का

तपस्या, भगवत्भाव वानप्रस्थी का

प्राणियों की रक्षा,, यज्ञ याज्ञ गृहस्थ का

ब्रह्मचारी का है आचार्य की सेवा।


मेरी उपासना करनी चाहिए सभी को

और जो पुरुष अनन्यभाव से

अपने वर्णाश्रम में रहकर ही

धर्म के द्वारा मेरी सेवा करे।


और समस्त प्राणियों में मेरी

भावना करता रहता है जो

मेरी निश्चल, अविरल भक्ति

प्राप्त हो जाती है उनको।


एकमात्र स्वामी मैं सम्पूर्ण लोकों का

उत्पत्ति, प्रलय का कारण ब्रह्म मैं

मुझे प्राप्त कर लेता भक्ति से

नित्य निरंतर जो बढ़ती जाती है।


इस धर्म अनुषठान में

यदि मेरी भक्ति जुड़ जाए

तो अनायास ही इस भक्ति से

मोक्ष की प्राप्ति हो जाती उसे।


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