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Ajay Singla

Classics

5  

Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१९९ ;भगवान् श्री कृष्ण का प्राकट्य

श्रीमद्भागवत -१९९ ;भगवान् श्री कृष्ण का प्राकट्य

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रोहिणी नक्षत्र था उस समय

युक्त समय था,समस्त गुणों से 

शांत सौम्य हो रहे थे 

सभी नक्षत्र, ग्रह, तारे आकाश में।


दिशाएं स्वच्छ प्रसन्न थीं 

आकाश में तारे जगमगा रहे 

नदियों का जल निर्मल हो गया 

रात्रि में भी कमल खिल रहे।


कहीं चहक रहे थे पक्षी 

कहीं भौंरे गुनगुना रहे 

शांत सुगन्धित वायु बह रही 

सुख देती लोगों को स्पर्श से।


कभी न बुझने वाली अग्नियां 

ब्राह्मणों के अग्निहोत्र की 

कंस के अत्याचारों से बुझ गयीं थीं जो 

अपने आप ही वो जल उठीं।


सत्पुरुष जो पहले से ही चाहते 

कि असुरों की बढ़ती न होने पाए 

मन उनका भी भर गया 

सहसा ही बड़ी प्रसन्नता से।


भगवान् के आविर्भाव के अवसर पर 

स्वर्ग में दुन्दुभि बज उठी 

किन्नर, गन्धर्व गाने लगे और 

सिद्ध चारण करने लगे स्तुति।


बड़े बड़े देवता, ऋषि मुनि सब 

पुष्प वर्षा करने लगे थे 

जल से भरे बादल धीरे धीरे 

गर्जना करते समुन्द्र के पास गए।


जब जनार्दन का अवतीर्ण हुआ 

समय निशीथ उस समय था 

चारों और अन्धकार का 

साम्राज्य हो रहा वहां।


देवकी के गर्भ से उसी समय 

प्रकट हुए भगवान् थे ऐसे 

पूर्व दिशा में सोलह कलाओं से 

पूर्ण चन्द्रमाँ उदय हों जैसे।


वासुदेव जी ने देखा कि 

अद्भुत बालक एक सामने उनके 

कोमल कमल के समान 

और विशाल नेत्र थे उनके।


शंख, गदा, चक्र, कमल हैं 

चार सुंदर हाथों में उनके 

वक्षस्थल पर श्री वत्स का चिन्ह 

कौस्तुभमणि गले में।


वर्षाकालीन मेघ के समान 

परम सुंदर श्यामल शरीर पर 

उनके जो फहरा रहा है 

एक सुंदर सा पीताम्बर।


वैदूर्यमणि के किरीट के कुंडल 

और उनकी कान्ति से चमक रहे 

सुंदर घुंगराले बाल जो उनके 

सूर्य की किरणों समान वे।


चमचमाती करधनी की लड़ियाँ 

लटक रहीं उनकी कमर में 

अनोखी छटा दिख रही थी 

उस बालक के अंग अंग में।


जब वासुदेव जी ने देखा कि 

पुत्र रूप में भगवान् ही आये 

पहले तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ 

फिर आँखें खिल उठीं आनंद से।


परमानन्द में मग्न हो गया 

रोम रोम था जो उनका 

और उन्होंने उतावली में 

दस हजार गौओं का संकल्प कर दिया।


जब उनको यह निश्चय हो गया 

कि परपपुरुष परमात्मा ये तो 

सारा भय जाता रहा उनका 

स्थिर किया अपनी बुद्धि को।


सिर झुकाकर प्रभु के चरणों में 

उनकी स्तुति करने लगे वो 

वासुदेव कहें, आप पुरुषोत्तम हैं 

अतीत हैं आप प्रकृति में।


समस्त बुद्धियों के एक मात्र साक्षी 

आप सबके अंतर्यामी हैं 

परमार्थ सत्य, आत्म स्वरुप आप

गुणों, विकारों से रहित हैं।


तीनों लोकों की रक्षा के लिए 

सत्वमय शुक्लवर्ण विष्णु रूप से 

उत्पत्ति के लिए रज प्रधान 

रक्तवर्ण ब्रह्मारूप धारण करें।


प्रलय के लिए तमोगुण प्रधान 

कृष्णवर्ण रुद्ररूप स्वीकारें 

प्रभो आप सर्वशक्तिमान 

और हैं स्वामी हम सबके।


मेरे घर अवतार लिया है 

इस संसार की रक्षा के लिए 

प्रभो, कंस ये बहुत दुष्ट है 

भाईयों को उसने मारा आपके।


आप के भय से ही ये सब किया 

अब जब ये सुनेगा वो तो 

कि आपका अवतार हुआ है 

शास्त्र लेकर दौड़ा आये वो।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित 

देवकी ने भी जब ये देखा कि 

सभी लक्षण मौजूद हैं 

भगवान् के, मेरे पुत्र में।


पहले तो कंस का भय मालूम हुआ 

बाद में बड़े पवित्र भाव से 

मुस्कुराते हुए देवकी 

भगवान् की ऐसे स्तुति करें।


माता देवकी ने कहा, प्रभो 

स्वयं विष्णु हैं प्रभु आप तो 

आप सर्वशक्तिमान और 

परम कल्याण के आश्रय हो।


आप की शरण लेती मैं 

प्रभु आप भवभयहारी 

दुष्ट कंस से बहुत भयभीत हम 

अतः रक्षा कीजिये हमारी।


विश्वात्मन, ये रूप आपका 

बहुत ही अलौकिक है ये 

छुपा लीजिये आप अपना 

सुंदर चतुर्भुज रूप ये।


आप परम पुरुष परमात्मा 

गर्भवासी आप हुए हैं मेरे 

 इस बारे में कहूँ कि आपकी 

अद्भुत मनुष्य लीला ये।


श्री भगवान् ने कहा, देवी 

 स्वयम्भुव मन्वन्तर में आपका 

जब पहला जन्म हुआ था 

नाम आपका तब पृशनि था।


वासुदेव का नाम सुतपा तब 

दोनों ही ह्रदय से बड़े शुद्ध थे 

संतान उत्पत्ति करने की आज्ञा दी 

तुम दोनों को ब्रह्मा जी ने।


इन्द्रियों का दमन करके फिर 

उत्कृष्ट तपस्या की तुमने 

चित था शांत तुम्हारा 

आराधना मेरी की तुम लोगों ने।


ऐसी इच्छा भी तुम्हारी 

अभीष्ट वास्तु प्राप्त करें मुझसे 

देवताओं के बारह हजार वर्ष 

बीत गए ऐसा करते करते।


देवी, मैं प्रसन्न हुआ तुम दोनों पर 

प्रकट हुआ तुम्हारे सामने 

कहा, जो इच्छा हो मांग लो 

मेरे जैसा पुत्र माँगा था तुमने।


उस समय विषयभोगों से 

सम्बन्ध न हुआ था तुम लोगों का 

तुम्हारे कोई संतान भी न थी 

पर माया से मोहित हो मोक्ष न माँगा।


पुत्र का वर मैंने तुम्हे दे दिया 

और फिर चला गया वहां से 

तब सफलमनोरथ होकर तुम 

विषयों का भोग करने लगे।


क्योंकि मेरे जैसा कोई न 

इसलिए मैं ही तुम्हारा पुत्र हुआ 

पृशनिगर्भ के नाम से 

उस समय था विख्यात हुआ।


दुसरे जन्म में तुम अदिति हुईं 

वासुदेव हुए कश्यप जी 

मेरा नाम उपेंद्र था तब 

जन्मा मैं तुमसे उस समय भी।


शरीर छोटा होने के कारण 

लोग वामन भी कहते थे मुझे 

देवी, इस जन्म में फिर तुम्हारा 

पुत्र हुआ हूँ उसी रूप में।


मैंने अपना यह रूप दिखाया 

इसलिए कि तुम्हे मेरे 

पूर्व अवतारों का स्मरण हो जाये 

पहचान लो तुम दोनो मुझे।


पुत्रभाव तथा निरंतर ब्रह्मभाव 

रखना तुम दोनों मेरे प्रति 

वात्सल्य स्नेह और चिंतन के द्वारा तुम्हे 

परमपद की प्राप्ति होगी।


श्रीशुकदेव जी कहते हैं, भगवान् फिर 

इतना कहकर चुप हो गए 

शिशु रूप धारण कर लिया 

माता पिता के देखते देखते।


भगवान् की ही प्रेरणा से 

वासुदेव ने अपने पुत्र को लेकर 

निकलने की इच्छा की थी 

उस सूतिकागृह से बाहर।


उसी समय जन्म हुआ योगमाया का 

नन्द पत्नी यशोदा के गर्भ से 

भगवान् की शक्ति होने का कारण 

जन्मरहित थीं उनके समान वे।


द्वारपाल, पुरवासिओं की 

समस्त इन्द्रिय वृतियों की 

उसी माया ने चेतना हर ली 

अचेत होकर सो गए सभी।


बंदीगृह के सब दरवाजे 

जहाँ बड़े बड़े ताले लगे थे 

बाहर जाना बड़ा कठिन था 

परन्तु जब वासुदेव वहां गए।


कृष्ण को गोद में लिए हुए वो 

अपने आप खुल गए दरवाजे 

बादल धीरे धीरे गरजकर 

जल की फुहारें छोड़ रहे थे।


इसलिए शेष जी फनों से 

उस जल को रोकते हुए 

पीछे पीछे चल दिए उनके 

वर्षा से बचाने के लिए।


बार बार वर्षा हो रही उन दिनों 

बहुत बढ़ गयीं थी जमुना जी 

प्रवाह गहरा और तेज था उनका 

परन्तु भगवान् के पहुँचते ही।


उन्होंने मार्ग दे दिया उन्हें 

वासुदेव गोकुल में पहुँच गए 

जाकर देखा कि सब के सब 

गोप नींद में अचेत पड़े हुए।


यशोदा की शय्या पर सुला दिया 

उन्होंने फिर अपना पुत्र 

और बंदीगृह लौट आये वो 

नवजात कन्या को उनकी लेकर।


वासुदेव जब जेल पहुँच गए 

देवकी की शय्या पर सुला दिया उसे 

बंदीगृह में बंद हो गए वो 

बेड़ियाँ डाल लीं अपने पैरों में।


इधर यशोदा जी को इतना तो 

मालूम था कि मेरे संतान है हुई 

परन्तु ये पुत्र है या पुत्री 

यह वो तब तक जान न सकीं।


क्योंकि एक तो उस समय 

परिश्रम हुआ था बहुत उन्हें 

दुसरे अचेत कर दिया था 

उन्हें वहां पर योग माया ने।




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