दर्जा
दर्जा
हाँ ! मैं नाराज़ हूँ
मुझे सहने की आदत विरासत में मिली है।
मेरा काम भी मेरे खून में है
मेरे पहचान का दर्जा इस समाज में मिला नही है।
मुझे ये लोग इंसान समझना भूल गए
मुझे हेय नज़रों से देखते और दूर करते रहे हैं।
मैं काम करता रहा ये मेरा विरासत है
हाँ मेरे काम को जातियों से आज़ादी नहीं मिला है।
हाँ मुझे बदलना है मुझे बदलने दोगे क्या ?
या फिर से मुझे मार दोगे ग़र आऊँ तुम्हारे साथ।
सोच लो ! मेरे विरासत में नहीं है धर्म और जाति,
ठेस तो लगेगी पर पीढ़ियों बाद भी इंसानियत है क्या ?
मेरी कहानी बार-बार यूँ ही रुक जाती है,
कहानियाँ बदलती है पर ये कहानी साथ में बदले क्या ?
कहते हैं ना ! कविताओं में जीवन होता है
मैं भी कविता बन जाऊँ क्या ?
