मैं मजा़क नहीं लिख रही हूँ
मैं मजा़क नहीं लिख रही हूँ
मैं मजा़क नहीं लिख रही हूँ
हकी़कत की
आईनाफ़रोश हूँ मैं
कलम की कुम्हारन हूँ मैं
शब्दों की जादूगरनी हूँ मैं
कभी बनाया था हमीं ने
अपने जुनूँ से बचपने में
काग़ज़ की कश्ती
और पेंसिल की नोक से
मीनारों,मेहराबों वाले
ताजमहल को
आज लफ़्जो़ं को गढ़ रही हूँ मैं
उन आँखों को खोलकर
जिस पर काली पट्टी बंधी हैं
तुम भी सच्चाई से
रु-ब-रु हो जाना
अगर तू सच्चा है तो ज़रुरी है
देख आज यह बनाया है मैंने
अभी-अभी ही गढा़ है इसे
सब कुछ उभारा है बारीकी से
गंदी सोच
और नंगी आँखों से मत देखना
भटक जायेगा तू
मुहब्बत की नज़र डाल
और दिल की आँखों से देख
इस करिश्में की कशिश से
लिपट जायेगा तू
चाक,मिट्टी
और कुम्हारन तक
सिमट जायेगा तू।