पाप-पुण्य: एक भ्रम
पाप-पुण्य: एक भ्रम
पुण्य था किस ओर,
कहां पाप का आधार था,
धर्म का वो युद्ध या,
अधर्म का व्यवहार था,
कौन थे विशुद्ध मन से,
छल कहां था पल रहा,
भगवान थे किस ओर कहां,
काल क्रीड़ा कर रहा,
लोभ से थे ग्रस्त कौन,
निष्काम कौन थे वहां,
यती कौन से मनुज और,
शांतिदूत थे कहां,
अभिमन्यु की थी मृत्यु छल तो,
भीष्म का था अंत क्या,
कौरवों ने क्या किया जो,
पांडवों ने ना किया,
लाक्षागृह था या हलाहल,
या वनों के द्वेष थे,
प्रतिशोध की उस भावना में,
द्रोपदी के खुले केश थे,
कौरवों का कुल मिटा,
क्या पांडवों को मिल गया,
पांच पांडवों को छोड़ सारा,
उनका भी कुल मिट गया,
लाल हुई रणभूमि और,
अन्तःपुर भी लाल था,
कहीं बहा रक्त कहीं,
बह रहा श्रृंगार था,
जीत की खुशी ये कैसी,
चूड़ियां थी रो रही,
विजय में रंगी हुई,
प्रतिशोध लाशें ढो रही,
कर्ण शल्य सात्यकी,
द्रोण को भी खो दिया,
सदमार्ग पर चलने वाले,
धर्मराज ने भी छल किया,
जिस राज्य के लिए लड़े,
और भाई अरि बन गए,
युद्ध की विभीषिका में,
राज्य ही वो जल गया,
जीत क्या मिली किसी को,
जीत में भी हार थी,
रणभूमि में जो बज रही,
वो हार की डंकार थी,
धर्म जो बचा था रण में,
लहू बन मही में मिल रहा,
हर योद्धा की मृत्यु में,
अधर्म दम्भ भर रहा,
विश्वगुरु भी देख सब ये,
मुस्कुरा रहे थे मन में,
कैसे धर्म की ही आड़ में,
अधर्म धर्म छल रहा,
युद्ध का विध्वंस वो ना,
धर्म का आधार था,
षड्यंत्र ही थी नींव उसकी,
छल का वो व्यवहार था।
