ये भटकतीज़िन्दगी
ये भटकतीज़िन्दगी
ज़िन्दगी को तेरे नियमों पर बिताती हूँ,
जो राह तूने ही चुनी चलती ही जाती हूँ,
ढूँढने तुमको मैं कितने दर भटकती हूँ,
लेकिन तुमसे हे प्रभु मैं मिल ना पाती हूँ,
भटकती ही मैं जाती हूँ।
सब तो कहते हैं तू कण कण में समाता है,
जग के हर एक जिव में बसता विधाता है,
विश्वास की एक डोर से मैं तो बंधी तुमसे,
पर डोर का वो छोर ही ना ढूंढ पाती हूँ,
भटकती ही मैं जाती हूँ।
धर्म क्या है सत्य क्या ये ढूंढती कब से,
तू मिलेगा किस जगह ये पूछती सबसे,
पर वास तेरा है कहाँ ना जान पाती हूँ,
ना धर्म में तेरे रूप को पहचान पाती हूँ,
भटकती ही मैं जाती हूँ।
तूने कहा था पाप जब बढ़ जाएगा भू पर,
उद्धार करने आऊंगा फिर से जन्म लेकर,
अन्याय-कलियुग-पाप कितने आज हावी हैं,
पर कहाँ है तू ना तुझको ढूंढ पाती हूँ,
भटकती ही मैं जाती हूँ।
आ भी जा अब तो जरूरत आ पड़ी माधव,
बढ़ रहा संताप दुःख का हरण कर माधव,
तू ही है एक आसरा उम्मीद बस एक तू,
तेरे बिना अस्तित्व अपना नहीं सोच पाती हूँ,
कि तुझको ही बुलाती हूँ।