श्रीमद्भागवत -१८६; चंद्रवंश का वर्णन
श्रीमद्भागवत -१८६; चंद्रवंश का वर्णन
श्री शुकदेवजी कहते हैं, परीक्षित
चन्द्रमाँ का वंश सुनाता हूँ तुम्हे
इस वंश में पुरुरवा आदि
बड़े बड़े पवित्रकीर्ति राजा हुए।
विराट पुरुष नारायण की नाभि के
कमल से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए
ब्रह्मा जी के पुत्र हुए अत्रि
गुणों में वो ब्रह्मा के समान थे।
अमृतमय चन्द्रमाँ का जन्म हुआ
उन्हीं अत्रि के नेत्रों से
ब्राह्मण, औषधि और नक्षत्रों का अधिपति
बना दिया था उन्हें ब्रह्मा ने।
तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की
और उन्होंने राजसूय यज्ञ किया
इससे घमंड बढ़ गया था उनका
बृहस्पति की पत्नी को हर लिया।
बलपूर्वक जब हर लिया तारा को
देवगुरु बृहस्पति ने तब उनसे
याचना की पत्नी लौटाने की
परन्तु लौटाया नहीं उन्होंने।
ऐसी प्रस्थिति में उनके लिए
देवता, दांव संग्राम छिड़ गया
बृहस्पति जी से द्वेष के कारण
शुक्राचार्य ने चन्द्रमाँ का पक्ष लिया।
महादेव जी ने स्नेहवश
भूतगणों के साथ में
बृहस्पति जी का पक्ष लिया जो
उनके विद्यागुरु अंगिरा के पुत्र थे।
देवराज इंद्र ने भी
समस्त देवताओं संग अपने
अपने गुरु बृहस्पति का पक्ष लिया
इस देवता, दानव संग्राम में।
तदनन्तर अंगिरा ऋषि ने
पास जाकर ब्रह्मा जी के
प्राथना की कि देवता दानवों का
युद्ध वो ही अब बंद कराएं।
इसपर ब्रह्मा ने चन्द्रमाँ को
बहुत डांटा और फटकारा
और तारा को उनके पति
बृहस्पति जी के हवाले कर दिया।
बृहस्पति जी को जब मालूम हुआ कि
तारा तो गर्भवती है
तो उन्हीने कहा, '' हे, दुष्टे
किसी दूसरे का ये गर्भ है।
इसे तू अभी त्याग दे
मैं तुम्हे कोई दण्ड न दूंगा
क्योंकि निर्दोष तू स्त्री होने के कारण
और मुझे भी संतान की कामना।
तारा अत्यंत लज्जित हुई थी
सुनकर बात पति की अपने
एक बालक, सोने सा चमके जो
अलग कर दिया अपने गर्भ से।
उस बालक को देखकर
चन्द्रमाँ, बृहस्पति मोहित हो गए
दोनों ही ये चाहने लगे कि
यह बालक मुझे मिल जाये।
एक दुसरे से झगड़ा करने लगे
यह तुम्हारा नहीं, मेरा है
ऋषिओं ने तारा से पूछा तो उसने
लज्जाकर कोई उत्तर न दिया।
झूटी लज्जा से क्रोधित होकर
बालक ने अपनी माता की
पूछा, अपना कुकर्म ये
जल्दी से बतलाती क्यों नहीं।
एकांत में बुलाकर तारा को
समझा बुझाकर पूछा जब ब्रह्मा ने
चन्द्रमाँ का ये बालक है
धीरे से तब कहा तारा ने।
इसलिए चद्रमान ने ले लिया उसको
फिर ब्रह्मा जी ने जब देखा
बुद्धि बड़ी गंभीर थी उसकी
तो बुद्ध नाम रख दिया उसका।
ऐसा पुत्र प्राप्त कर फिर
बहुत आनंद चन्द्रमाँ को हुआ था
बुद्ध द्वारा फिर इला के गर्भ से
पुरुरवा का जन्म हुआ था।
एक दिन इंद्र की सभा में
देवर्षि नारद गान कर रहे
रूप. गुण, उदारता, शील स्वभाव
संपत्ति, पराक्रम का पुरुरवा के।
उसे सुनकर उर्वशी के ह्रदय में
उदय हो गया कामभाव का
पुरुरवा के पास चली गयीं
उससे पीड़ित हो वो देवांगना।
यद्यपि मित्रवरुन के शाप से ही
उन्हें मृत्यु लोक में आना पड़ा था
सुनकर ये कि पुरुरवा कामदेव समान हैं
उर्वशी ने धैर्य धारण किया।
पुरुरवा के पास चलीं गयीं वो
पुरुरवा को भी बहुत हर्ष हुआ
बड़ी ही मीठी वाणी में
उर्वशी से उन्होंने था कहा।
'' सुंदरी, तुम्हारा स्वागत है
बैठो ! क्या सेवा करून तुम्हारी
मेरे साथ विहार करो तुम
अनंतकाल तक चले ये ऐसे ही ''।
उर्वशी ने कहा, '' हे राजन
मूर्तिमान स्वरुप हैं आप सौंदर्य के
रूप, गन से जो प्रशंशनीय हों
अभीष्ट होते स्त्रियों के पुरुष वे।
अतः मैं अवश्य विहार करूं आपसे
परन्तु मेरी एक शर्त है
भेड के दो बच्चे सौंपती हूँ
आपको धरोहर के रूप में मैं।
आप उनकी रक्षा करोगे
और मैं केवल घी खाऊँगी
मैथुन के अतिरिक्त किसी भी समय
वस्त्रहीन आपको न देखूँगी ''।
पुरुरवा ने कहा,'' ठीक है ''
शर्त स्वीकार कर ली थी उनकी
उर्वशी कामशास्त्रोक्त पद्धति से
पुरुरवा के साथ विहार करने लगीं।
इधर उर्वशी को नहीं देखा
जब इंद्र ने तब उन्होंने
भेज दिया था गन्धवों को
उर्वशी को लेन के लिए।
आधी रात को गन्धर्व गए वहां
और दोनों भेड़ों को उर्वशी की
चुराकर चलते बने वो
राजा के पास जो धरोहर थीं।
भेड़ों की बैं बैं की आवाज सुनी
जब उर्वशी ने तब वो
देखें कि गन्
धर्व ले जा रहे
पुत्र समान उनकी भेड़ों को।
उन्होंने तब कहा ''अरे ये मैंने
अपना स्वामी मन है जिसको
अपने वो वीर मने, परन्तु वो
बचा न सका मेरी भेड़ों को ''।
उर्वशी ने अपने वचन वाणों से
बेंध दिया था राजा को
पुरुरवा को भी क्रोध आ गया
निकले हाथ में तलवार लेकर वो।
वे उस समय वस्त्रहीन थे
गंधर्वों की तरफ दौड़ पड़े
गंधर्वों ने भेड़ों को वहीँ छोड़ दिया
बिजली की तरह वो चमकने लगे।
भेड़ों को लेकर लौटे राजा जब
तब उर्वशी ने उस प्रकाश में
वस्त्रहीन पुरुरवा को देख लिया
छोड़ कर चली गयीं उसी समय उन्हें।
राजा पुरुरवा ने जब देखा
प्रियतमा उर्वशी नहीं है वहां
अनमने से हो गए वे क्योंकि
चित उर्वशी में ही लगा हुआ।
शोक से विह्वल हो गए
भटकें पृथ्वी पर उन्मत्त की भांति
फिर एक दिन कुरुक्षेत्र में
उर्वशी उन्हें दिखाई दी।
उर्वशी थी सखिओं संग अपनी
राजा ने मीठी वाणी में कहा
तनिक ठहर जाओ तो सही
मेरी एक बात सुन लो जरा।
आओ हम कुछ बातें कर लें
मेरा शरीर ढेर हुआ जाता
विनती सुन पुरुरवा की
उर्वशी ने उनसे ये कहा।
राजन, स्त्रिओं की मितरता न किसी से
क्रूरता स्वाभाविक रहती है उनमें
तनिक सी बात से चिढ़ जाती हैं
अपने सुख के लिए काम करें।
स्वार्थ के लिए विश्वास दिलाकर
पति, भाई को भी मार डालतीं
फंसे वो झूठ मूठ बात कर
ह्रदय में सौहार्द तो है ही नहीं।
पुरुष की छह में
कुलटा, स्वच्छन्दचारणी बन जातीं
पर तुम फिर भी धीरज रखो
ध्यान से बात सुनो मैं जो कहती।
प्रति एक वर्ष के बाद तुम
एक रात मेरे साथ रहोगे
तब उसी के कारण होंगी
और भी हमारी सन्तानें।
राजा पुरुरवा ने देखा कि
उर्वशी गर्भवती है इसलिए
अपनी राजधानी लौट आये
एक वर्ष के बाद वहां गए।
तब तक एक वीर पुत्र की
माता बन चुकी थी उर्वशी
रात भर वो उसके साथ रहे
लेकिन फिर सुबह जब हुई।
उर्वशी तब जाने लगी तो
राजा विरह से ग्रस्त हो गए
दीन की भांति याचना करें
उर्वशी तब उन्हें ये कहें।
इन गंधर्वों की स्तुति करो तुम
ये ही तुम्हे मुझे हैं दे सकते
राजा ने जब स्तुति की उनकी
गन्धर्व उनपर प्रसन्न हो गए।
एक अग्निस्थापन का पात्र उन्हें दिया
राजा ने समझा उर्वशी है ये
ह्रदय से लगाकर पात्र को
वन वन घुमते रहे लेकर उसे।
जब उन्हें होश हुआ तब वे
अग्निस्थली को छोड़कर वन में
अपने महलों में लौट आये और
उर्वशी का ध्यान करते रहे।
त्रेतायुग का प्रारम्भ हुआ जब
तीनों वेद प्रकट हुए उनके ह्रदय में
जहाँ पर अग्निस्थली छोड़ी थी
उस स्थान पर फिर से गए वे।
वहांपर भमिवृक्ष के गर्भ से
पीपल का एक वृक्ष उग आया था
उससे दो अरनियां बनायीं
फिर उन्होंने मंथन किया था।
ऊर्वशीलोक की कामना से
उर्वशी नीचे की ार्नी को
ऊपर की ार्नी ो पुरुरवा
और पुत्र रूप में बीच के कष्ट को।
ऐसे चिंतन करके उन्होंने
मन्त्रों से मंथन किया था
जातवेदा नामक अग्नि फिर
उससे ये पुत्र हुआ था।
अग्निदेवता का त्रयोविद्या द्वारा
विभाजन कर दिया तीन भाग में
तीन भाग ये
स्वीकार किया उन्हें फिर पुत्र रूप में।
फिर राजा पुरुरवा ने
फिर इन्हीं अग्नियों के द्वारा
ऊर्वशीलोक की इच्छा से
भगवान् हरी का यजन किया।
परीक्षित, त्रेता से पूर्व सतयुग में
एकमात्र ओंकार ( प्रणव ) ही वेद था
सभी वेद, शास्त्र उसके अनुभूत थे
नारायण के सिवा देवता न कोई था।
अग्नि भी तीन नहीं, एक था
और वर्ण भी केवल एक ही था
पुरुरवा से ही त्रेता के प्रारम्भ में
वेदत्रीय, अग्नित्रिय का आविर्भाव हुआ।
अग्नि को सन्तानरूप में
स्वीकार किया राजा पुरुरवा ने
और इस के कारण ही
गंधर्वलोक की प्राप्ति हुई उन्हें।