श्रीमद्भागवत -१२८ ;वृत्रासुर का पूर्वचरित्र
श्रीमद्भागवत -१२८ ;वृत्रासुर का पूर्वचरित्र
राजा परीक्षित ने पूछा, भगवन
रजोगुणी, तमोगुणी था वृत्रासुर
पाप भी करता था वो
देवताओं को कष्ट पहुंचाकर।
ऐसी स्थिति में, नारायण चरणों में
सुदृढ़ भक्ति कैसे हुई उसकी
भगवान की भक्ति तो बड़ी दुर्लभ है
सिद्ध एवं मुक्त पुरुषों में भी।
एक मात्र हरि के ही परायण हों
ऐसे महापुरुष मिलना कठिन है
ऐसे में वृत्रासुर की दृढ भक्ति
बताईये इसका क्या कारण है।
भयंकर युद्ध के समय वृतिओं को
कृष्ण के चरणों में लगाकर
कैसे संभव हुआ वृत्रासुर के लिए
बड़ा अधिक संदेह हमें है इसपर।
सूत जी कहें, शौनकादि ऋषिओ
श्रेष्ठ प्रश्न सुनकर परीक्षित का
शुकदेव जी ने ये बात कही
अभिनन्दन करकर फिर उनका।
शुकदेव जी कहें, परीक्षित तुम
ध्यान देकर इतिहास सुनो ये
विधिपूर्वक जो सुनाया मुझको
व्यासजी, नारदजी, महर्षि देवल ने।
प्राचीन काल की ये बात है
चित्रकेतु नाम के राजा थे
एक करोड़ रानियां उनकी
महाराज वो सूरसेन देश के।
पृथ्वी स्वयं ही प्रजा की
इच्छानुसार अन्न, रस दिया करती
राजा संतान उत्पन्न करने में समर्थ थे
परन्तु उनके संतान नहीं थी।
चित्रकेतु गुणों में संपन्न थे
पर बाँझ होने के कारण स्त्रिओं के
चिंता उन्हें लगी रहती थी
पुत्र न होने से बहुत दुखी थे।
शाप और वरदान देने में समर्थ
एक दिन ऋषि अंगिरा आए वहां
राजा ने विधिवत पूजा की
और उनको उचित आसान दिया।
ऋषि सोचें, राजा विनयी है
ये पूछें आदर देते हुए
राजा तुम सकुशल तो हो न
उपदेश देते फिर कहें राजा से।
महतत्वादि सात आवरणों में
जीव घिरा रहता है जैसे
एक राजा भी घिरा रहता है
सात प्रकृतिओं में ही वैसे।
गुरु, मंत्री, राष्ट्र, दुर्ग
कोष, सेना और मित्र सात ये
राजा की जो कुशल है
वो रहे इनकी कुशल से।
देख रहा संतुष्ट नहीं तुम
कामना कोई अपूर्ण तुम्हारी
मुँह पर उदासी छाई है
लग रहा कोई चिंता भारी।
हे परीक्षित, अंगिरा जानें सब
क्या चिंता राजा के मन में
सिद्ध पुरुष महर्षि अंगिरा
फिर भी अनेकों प्रश्न थे पूछें।
संतान की कामना चित्रकेतु की
निवेदन किया अंगिरा ऋषि से
भगवन सबकुछ जानबूझकर
मुझसे मेरी चिंता पूछ रहे।
चरणों में निवेदन करूँ आपके
राज्य, ऐश्वर्य प्राप्त मुझ सभी
परन्तु संतान न होने के कारण
शांति नहीं है तनिक भी।
मैं तो दुखी हूँ ही इससे और
पिंडदान न मिलने की आशंका में
मेरे पित्तर भी दुखी हो रहे
इस घोर नर्क से उबारिये मुझे।
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
ऐसे राजा ने प्रार्थना की जब
अंगिरा ने चरु निर्माण कर
त्वष्टा देवता का यजन किया तब।
चित्रकेतु की रानिओं में से
कृतद्युति जो बड़ी थी सबसे
अवशेष प्रदान किया यज्ञ का
उनको ही ऋषि अंगिरा ने।
चित्रकेतु से कहा, हे राजन
एक पुत्र होगा पत्नी से
हर्ष, शोक तुम्हे दोनों देगा
ये कहकर महर्षि चले गये।
समय आने पर रानी से
एक सुंदर पुत्र का जन्म हुआ
चित्रकेतु बहुत आनंदित हुए
ब्राह्मणों को यथोचित धन दिया।
चित्रकेतु का स्नेह्बंधन उस
पुत्र में दिनों दिन बढ़ने लगा
और माता कृतद्युति को भी
अपने पुत्र से बहुत स्नेह था।
परन्तु उसकी सौत रानिओं के
मन में पुत्र की कामना से
और भी जलन होने लगी
डाह भर गया उनके मन में।
अपने को धिक्कारने लगीं
कहें हम गयी बीती दासिओं से भी
द्वेष हो गया कृतद्युति से
गोद भरी देख सौत की।
उन स्त्रिओं की बुद्धि मारी गयी
क्रूरता छा गयी उनके चित में
चिढ कर नन्हे राजकुमार को
विष दे दिया था उन्होंने।
रानी सोचें, बच्चा सो रहा
बहुत देर तक जब न उठा तब
धाय को कहा रानी ने
ले आओ तुम बच्चे को अब।
धाय ने देखा बच्चा तो मृत है
लगी वो रोने जोर जोर से
रानी भी देखें बच्चा मर गया
मूर्छित हो गयीं वो शोक से।
रनिवास के सभी स्त्री पुरुष
पहुँच गए वहां, बाकी रनियां भी
हत्यारी रानियां झूठ मूठ वहां
रोने का ढोंग करने लगीं।
राजा को जब पता चला तो
अँधेरा छा गया आँखों के सामने
बालक के पास पहुँच के ही वो
मूर्छित होकर थे गिर पड़े।
फूट फूटकर रोने लगे राजा
रानी भी विलाप कर रही
शोक में अचेत से हो गए
नगर के सारे नगरवासी भी।
अंगिरा और देवऋषि नारद ने
देखा कि पुत्रशोक के कारण
राजा चेतनाहीन हो रहे
समझाने पहुंच गए वहांपर।