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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत -२८६ः भृगु जी द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा और भगवान का मरे हुए ब्राह्मण बालकों को वापिस लाना

श्रीमद्भागवत -२८६ः भृगु जी द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा और भगवान का मरे हुए ब्राह्मण बालकों को वापिस लाना

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श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

एक बार सरस्वती के तट पर

यज्ञ प्रारम्भ करने के लिए बड़े बड़े

ऋषि मुनि बैठे एकत्रित होकर ।


उन लोगों में इस विषय पर

वाद विवाद चल रहा था कि

कौन सबसे बड़ा भगवान है

ब्रह्मा, विष्णु और शिवशंकर में ।


इस उद्देश्य से फिर उन्होंने

ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु को

उन तीनों के पास भेजा था

और जब ब्रह्मा के पास गए वो ।


उनके धैर्य की परीक्षा के लिए

नमस्कार या स्तुति ना की उनकी

ब्रह्मा जी को क्रोध आ गया

परंतु क्रोध को पी लिया भीतर ही ।


उन्होंने सोचा कि भृगु ये

मेरा ही पुत्र है ये तो

विवेक बुद्धि से दबा लिया

अपने मन में उठे क्रोध को ।


उसके बाद भृगु कैलाश में गए

शंकर उन्हें देख खड़े हो गए

और अपनी भुनाएँ फैला दीं

उन्हें आलिंगन करने के लिए ।


परंतु महर्षि भृगु ने उनका

आलिंगन करना स्वीकार ना किया

कहा “ वेद मर्यादा का उलंघन करो तुम

इसलिए मैं तुम्हें नही मिलूँगा “ ।


यह बात सुनकर भृगु की

शंकर क्रोध से तिलमिला उठे

त्रिशूल से भृगु को मारना चाहा

क्रोध शांत किया उनका सती ने ।


तब महर्षि भृगु वैकुण्ठ को गए

भगवान विष्णु जी उस समय

लक्ष्मी जी की गोद में

सिर रखकर बैठे हुए थे ।


भृगु जी ने उनके वक्षस्थल पर

लात मार दी वहाँ जाकर

विष्णु जी उठ खड़े हुए और

प्रणाम किया उन्हें सिर झुकाकर ।


भगवान ने कहा” ब्राह्मण आपका

स्वागत है आप पधारे

इस आसन पर बैठकर

कुछ क्षण विश्राम कीजिए ।


प्रभु ! मुझे नही पता था

आपके शुभागमन का इसलिए

अगवानी कर सका ना आपकी

मेरा अपराध क्षमा कीजिए ।


महामुने चरणकमल आपके

बहुत कोमल हैं “ कहकर ये

भगवान भृगु जी के चरणों को

अपने हाथों से सहलाने लगे ।


बोले “ महर्षि, आपके चरणकमलों का

जल तीर्थों को भी तीर्थ बना दे

वैकुण्ठ, मुझे, मेरे अंदर जो

लोक हैं उनको पवित्र कीजिए ।


भगवान आपके चरणों के स्पर्श से

मेरे सारे पाप धूल गए

लक्ष्मी का एकमात्र आश्रय हो गया मैं

और चिन्हित इन चरणकमलों में ।


लक्ष्मी जो, वो मेरे वक्ष स्थल पर

सदा सर्वदा निवास करेगी “

श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

सुनकर ऐसी वाणी भगवान की ।


भृगु जी का गला भर आया और

वो परम सुखी और तृप्त हो गए

छलक गए आँखों से आंसू

इसके बाद चुप हो गए वे ।


मुनियों के सत्संग में आए

वहाँ से लौटकर फिर भृगु जी

ब्रह्मा, विष्णु, और शंकर के यहाँ

अनुभव हुआ जो वो कथा सुना दी ।


भृगु जी का अनुभव सुनकर

सब लोग बड़े विस्मित हुए

संदेह दूर हुआ और तबसे

विष्णु को सर्वश्रेष्ठ मानने लगे वे ।


क्योंकि शान्ति और अभय  के

स्वयं उदगमस्थान ही हैं वे

धर्म, ज्ञान, वैभव, ऐश्वर्य

और यश प्राप्त हो उनसे ।


साधु, मुनियों की एकमात्र गति वे

सारे शास्त्र कहते हैं ऐसा

प्रिय मूर्ति उनकी सत्व है

इष्टदेव ब्राह्मण है उनका ।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

सरस्वती तट के ऋषियों ने

संशय मिटाने के लिए ये युक्ति रची थी

अपने लिए नही, मनुष्यों के लिए ।


सूत जी कहें, शौनक़ादि ऋषियो

भगवान की यह कमनीय कीर्ति

सुरभिमयी, मधुमयी सुधाधारा है

शुकदेव जी के मुख से निकली हुई ।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

एक दिन की बात है ये

द्वारका में एक पुत्र पैदा हुआ

किसी ब्राह्मणी के गर्भ से ।


परन्तु वह पृथ्वी का स्पर्श कर

उसी समय ही मर गया था 

ब्राह्मण बालक का शरीर लेकर

राजमहल के द्वार पर गया ।


दुखी मन से विलाप करता हुआ

उसे वहाँ रख, भावुकता से

बोला “मेरा बालक मरा है

धूर्त राजा के कर्मदोषों से ।


ब्राह्मणद्रोही, विषयी राजा

हिंसापरायण, कुशील जो राजा हो

उसकी सेवा करने वाली प्रजा

दरिद्र होकर दुःख भोगती है वो “ ।


परीक्षित इसी तरह दूसरे और तीसरे

बालक होते और मर जाते वो

राजमहल के दरवाज़े पर रखकर

हर बार वही बात कह जाता वो ।


नवें बालक के मर जाने पर वो आया

तो कृष्ण के साथ अर्जुन वहीं थे

ब्राह्मण की वही बात सुनकर

वो उससे ये कहने लगे ।


“ ब्राह्मण, आपके निवासस्थान इस

द्वारका में कोई क्षत्रिय नही है क्या

मालूम होता है ये यदुवंशी

धर्म भूल गए प्रजापालन का ।


धन, स्त्री, पुत्र से वियुक्त होकर 

जिस राज्य में ब्राह्मण दुखी हों

वो क्षत्रिय नही, उनके वेश में

पेट पालने वाले नट बोलो ।


उनका तो जीवन व्यर्थ है

और मैं विश्वास दिलाता

जिन पुत्रों की मृत्यु से तुम दीन हो रहे 

मैं उनकी रक्षा करूँगा ।


मैं प्रतिज्ञा पूरी ना कर सका तो

जलकर मरूँगा कूदकर आग में

और इस प्रकार प्रायश्चित

हो जाएगा पाप का मेरे “।


ब्राह्मण ने कहा “ हे अर्जुन

सचमुच मूर्खता है तुम्हारी ये

इस बात का तो तुम्हारे

बिल्कुल भी विश्वास ना हमें “ ।


अर्जुन ने कहा “ हे ब्राह्मण मैं

बलराम, कृष्ण, प्रद्युमण नही हूँ

जिसका गाण्डीव धनुष विश्व विख्यात है

मैं वही महारथी अर्जुन हूँ ।


ब्राह्मण, आप तिरस्कार मत करो

मेरे बल और पौरुष का

आप जानते नही अपने। से

कितने। का संहार कर चुका ।


साक्षात मृत्यु को भी जीतकर

ला दूँगा संतान आपकी “

अर्जुन के विश्वास दिलाने पर

घर लौट आया ब्राह्मण तभी ।


प्रसव का समय निकट आने पर

ब्राह्मण अर्जुन के पास गया

“ मेरे बच्चे को मृत्यु से बचा लो “

अर्जुन से ऐसे कहने लगा ।


अर्जुन ने शंकर को नमस्कार कर

गाण्डीव धनुष के वाणों को

तंत्र मंत्र से अभिमंत्रित कर

घेरा सभी और से प्रसव गृह को ।


ब्राह्मणी के गर्भ से एक शिशु पैदा हुआ

रो रहा था बार बार जो

परंतु देखते ही देखते

सशरीर अंतरधान हो गया वो ।


अब ब्राह्मण कृष्ण के सामने ही

निन्दा करने लगा अर्जुन की

बोला “ इसकी बातों पर मैंने

विश्वास किया, ये मूर्खता मेरी ।


भला जिसे प्रद्युमण , अनिरुद्ध 

कृष्ण और बलराम जी भी

ना बचा सके हों, उसकी रक्षा की

किसी और की क्या समर्थ हो सकती ।


मिथ्यावादी अर्जुन धिक्कार है

इसकी दुर्बुद्धि तो देखो

प्रारब्ध ने जिसे हमसे अक्षम कर दिया

लेवा लाना चाहता था ये उस बालक को ।


ब्राह्मण जब भला बुरा कह रहा 

तब अर्जुन अपने योगबल से

संयमनीपुरी में गए जहां

यमराज निवास हैं करते ।


वहाँ उन्हें ब्राह्मण बालक ना मिला तो 

अपने शस्त्र लेकर फिर वे

गए थे उन पुरियों में

इंद्र, अग्नि, वायु और वरुण के ।


अतलादि लोकों में भी गए वो

वह बालक मिला नही वहाँ भी

उनकी प्रतिज्ञा पूरी ना हो सकी

तब उन्होंने निश्चय किया यही ।


कि मैं अग्नि में प्रवेश करूँगा

परंतु कृष्ण ने उन्हें रोक दिया

“ तिरस्कार मत करो अपना तुम”

ये कृष्ण ने अर्जुन से कहा ।


कहा कि ब्राह्मण के बालक सारे

मैं अभी दिला देता तुम्हें

तुम्हारी निंदा कर रहे आज जो वही

तुम्हारी कीर्ति का गुणगान करेंगे ।


भगवान ने अर्जुन को समझाया

फिर एक दिव्य रथ मँगवाया

उस पर सवार हो गए वो दोनों

पश्चिम दिशा को प्रस्थान किया ।


सात द्वीप सात पर्वत और

लोकालोक पर्वत को लांघ कर

घोर अंधकार में प्रवेश किया

सूर्य की रोशनी भी नही वहाँ पर ।


शैब्य,सुग्रीव,मेघपुष्पऔर बलाहक

चारों घोड़े जो उनके रथ के

अपना मार्ग भूलकर सभी

इधर उधर भटकने लगे ।


ऐसी दशा देख उनकी, भगवान ने

आगे चलने की आज्ञा दी चक्र को

आगे बढ़ा सुदर्शन, अपने तेज से

चीरकर उस अंधकार को ।


परम ज्योति जगमगा रही चक्र पर

आँखें चुँधिया गयीं उसे देख अर्जुन की

अपने नेत्र बंद किए उन्होंने

भगवान के रथ ने तब इसके बाद ही ।


दिव्य जलराशि में प्रवेश किया

बड़ी बड़ी तरंगें उठ रहीं जिसमें

वहाँ एक सुंदर महल था

शेष जी वहाँ विराजमान थे ।


उनके सहस्रों सिर थे

दो दो नेत्र प्रत्येक सिर में

सम्पूर्ण शरीर श्वेत वर्ण का

गला और जीभ नीले रंग के ।


अर्जुन ने देखा शेष जी की शैय्या पर

परम पुरुषोत्तम भगवान हैं बैठे

शरीर की कान्ति श्यामल है

पीला वस्त्र धारण किए हुए ।


गले में कोसतुभमनी थी

वत्स का चिन्ह वक्ष स्थल पर उनके

सभी शक्तियाँ और श्रुतियाँ सब

लगीं हुई उनकी सेवा में ।


अपने ही स्वरूप अनन्त भगवान को 

प्रमाण किया श्री कृष्ण ने

अर्जुन उनको देख कर ही

थोड़ा सा भयभीत हो गए थे ।


अनन्त भगवान को उन्होंने भी प्रणाम किया

हाथ जोड़कर खड़े हो गए

लोकपालों के स्वामी भूमा  पुरुष ने

तब ये कहा था उनसे ।


“ श्री कृष्ण और अर्जुन, मैंने

देखने के लिए तुम लोगों को

अपने पास मंगा लिया था

उस ब्राह्मण के बालकों को ।


धर्म की रक्षा के लिए तुम दोनों ने

मेरी कलाओं के साथ ही

पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया

उतारने के लिए पृथ्वी का भार ही ।


दैत्यों का संहार करके तुम

लोटोगे मेरे पास तुम दोनो

तुम ऋषि नर और नारायण हो

पूर्णकाम और सर्वश्रेष्ठ हो ।


फिर भी लोकसंग्रह के लिए

आचरण करो तुम धर्म का

दोनों ने भगवान को नमस्कार किया

बालकों को लेकर आ गए द्वारका ।


अपनी आयु अनुसार वो बालक

काफ़ी बड़े बड़े हो गए थे

ब्राह्मण को सौंप दिया उनको

कृष्ण और अर्जुन दोनों ने ।


विष्णु का परमधाम देखकर

अर्जुन के आश्चर्य की सीमा ना रही

सोचें वे कि जो कुछ बल पोरुष

है मुझमें वो सब बस कृष्ण का ही ।


भगवान ने ऐसी कई लीला रचीं

राक्षसों को मार डाला कई

कईयों को अर्जुन से मरवाकर

पृथ्वी पर घर्ममर्यादा की स्थापना की ।


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