श्रीमद्भागवत -३१६: भागवतधर्मों का निरूपण और उद्धव जी का बद्रिकाश्रमगमन
श्रीमद्भागवत -३१६: भागवतधर्मों का निरूपण और उद्धव जी का बद्रिकाश्रमगमन


श्रीमद्भागवत -३१६: भागवतधर्मों का निरूपण और उद्धव जी का बद्रिकाश्रमगमन
उद्धव जी ने कहा, अच्युत:
मन को जो वश में न कर सके
आपकी बतलायी हुई योगसाधना
तो बहुत कठिन उसके लिए ।
अतः आप कोई सरल और सुगम
ऐसा साधन बतलाइए जिससे
मनुष्य ये अनायास ही
परमपद को प्राप्त कर सके ।
कमालनयन, आप जानते ही हैं
कि अधिकांश योगी जब मन को
एकाग्र करने की चेष्ठा करते
सफल ना हों कई बार जब वो ।
वो हार मान लेते तब
और दुखी हो जाते इससे
प्रभु आप तो विश्वेश्वर हैं
नियमन होता संसार का आपसे ।
आपके चरणकमलों की शरण ले
आकर जो मनुष्य सिद्धि प्राप्त करें
बिगाड़ ना सके माया कुछ उसका
योगसाधना का अभिमान भी ना हो उन्हें ।
परंतु आश्रय जो ले ना इनका
योगी, कर्मी वो अपने साधन के
घमंड से फूल जाते हैं
मति हरली उनकी आपकी माया ने ।
प्रभो, आप सबके सुहृद, हितेषी
आप अधीन बलिआदि सेवकों के
वानरों से मित्रता का निर्वाह किया
शरणागत को सब कुछ दे देते ।
फँसा रखते जो तुच्छ विषयों में
कौन चाहेगा उन भोगों को
आपके चरणकमलों की रज के
उपासक हैं हम लोग तो ।
हमारे लिए दुर्लभ ही क्या है
समस्त प्राणियों के अंतकरण में
अंतर्यामी रूप में आप स्थित हो
पाप ताप मिटा देते उनके ।
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
ईश्वर कृष्ण हैं ब्रह्मादि के भी
ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र बनते हैं
सत्व, रज, तम गुणों से वे ही ।
जगत की उत्पत्ति, स्थिति आदि का
खेल खेला करते हैं वे
मन्द मन्द मुस्कुराने लगे
जब उद्धव जी ने प्रश्न किया ये ।
कहें कि उद्धव, अब मैं तुम्हें
उपदेश करूँ भागवत धर्मों का
जिसका आचरण करके मनुष्य
मृत्यु को भी जीत है लेता ।
उद्धव जी, मेरे भक्त को चाहिए
सारे कर्म मेरे लिये ही करे
धीरे धीरे उनको करते समय
अभ्यास बढ़ाए स्मरण का मेरे ।
कुछ ही दिनों में मन और चित
मुझमें समर्पित हो जाएँगे
मन और आत्मा रम जाए
मेरे ही धर्मों में उसके ।
जहां मेरे अनन्य भक्त हों
उसे निवास वहीं करना चाहिए
जो मेरे अनन्य भक्त हैं
उनके आचरण का अनुसरण करे ।
समस्त प्राणियों और अपने आप में
स्थित देखे मुझ परमात्मा को ही
और जो प्राणी दर्शन करता है
सभी पदार्थों में मेरा ही ।
ब्राह्मण और चांडाल, चोर और ब्राह्मण भक्त
सूर्य - चिंगारी, कृपालु और क्रूर में
समान दृष्टि रखता है जो
उसे ही ज्ञानी समझना चाहिए ।
जब निरन्तर सभी नर नारियों में
मेरी ही भावना की जाती
तब थोड़े ही दिनों में
दोष दूर हों अहंकार आदि ।
स्पर्धा, ईर्षा, तिरस्कार, अहंकार आदि
उसका तो दूर हो जाए
“ मैं अच्छा हूँ, वह बुरा है “
ये भाव समाप्त हो जाये ।
सभी को पृथ्वी पर गिरकर
षाष्टांग दण्डवत करे वो
और मेरी भावना सभी में
जब तक ना होने लगे तो ।
तब तक मन, वाणी, शरीर के
सभी संकल्पों और कर्मों द्वारा
मेरी उपासना करता रहे ताकि
संसार संदेह मिट जाए उसका ।
ऐसी दृष्टि होने पर निवृत्ति हो
अपने सारे संशय, संदेहों की
सारूप्यदृष्टि से उपराम हो जाता वो
मेरा साक्षात्कार करके सब कहीं ।
मेरी प्राप्ति के जितने साधन हैं
सबमें श्रेष्ठ साधन है यही
कि भावना करे समस्त पदार्थों में
मन, वाणी, शरीर से मेरी ही ।
मेरा अपना भागवतधर्म है यही
एक बार जो आरम्भ कर देते
फिर किसी प्रकार की विघ्न बाधा से
रत्तीभर भी अंतर नहीं पड़ता इसमें ।
क्योंकि यह धर्म निष्काम है
और स्वयं मैंने ही इसे
सर्वोत्तम निश्चय किया है
कारण इसका क्योंकि निर्गुण ये ।
किसी प्रकार की त्रुटि पड़नी तो दूर रही
यदि साधक भागवत धर्म का
भय शोक से होने वाले निरर्थक कर्म
जैसे रोना, पीटना, भागना ।
निष्काम भाव से मुझे समर्पित कर दे
तो प्रसन्नता के कारण म
ेरी
वो भी धर्म बन जाते हैं
प्राप्ति होती मुझ अविनाशी की ।
उद्धव जी, ब्रह्मविद्या का रहस्य
जो मैंने सुनाया आपको
देवताओं के लिये भी कठिन है
क्या कहें मनुष्यों की तो ।
उसके मर्म को समझ लेने से
हृदय का संशय छिन्न भिन्न हो जाता
और इन ग्रंथियों के कटने से
हृदय भी मुक्त हो जाता ।
हमारा ये संवाद परम् पवित्र है
दूसरों को भी पवित्र करने वाला
परम्भक्ति मेरी प्राप्त हो उसे
श्रद्धा पूर्वक जो इसे सुनता ।
सखे, अब तो तुम्हारे चित का
शोक, मोह दूर हो गया होगा
तुम इसे दाम्भिक्, नास्तिक और
भक्तिहीन पुरुष को कभी मत देना ।
जो इन दोषों से रहित है
ब्राह्मण भक्त साधुस्वभाव है जो
और जिसका चरित्र पवित्र है
सुनाना चाहिए ये प्रसंग उसी को ।
अमृतपान कर लेने पर जैसे
कुछ भी पीना शेष नहीं रहता
वैसे ही जान लेने पर इसको
शेष ना रहे कुछ भी जानना ।
ज्ञान, कर्म, राजदण्ड आदि से क्रमश
मोक्ष, धर्म, काम, अर्थ रूप फल मिलते
परंतु चारों प्रकार का फल केवल है
तुम जैसे अनन्य भक्तों के लिए ।
परित्याग करके समस्त कर्मों का
आत्मस्मर्पण मनुष्य जब करे मुझे
मेरा विशेष माननीय हो जाए वो
मोक्ष दे देता हूँ मैं उसे ।
श्री शुकदेव जी कहते, परीक्षित जब
उपदेश प्राप्त कर चुके उद्धव जी
उनकी आँखों में आंसू आ गये
बात सुनकर भगवान कृष्ण की ।
प्रेम की बाढ़ में गला रूँध गया
हाथ जोड़े चुपचाप खड़े रहे
वाणी से कुछ बोला ना गया
विह्वल हो रहा चित प्रेमावेश में ।
उन्होंने धैर्यपूर्वक उसे रोका
अपने को सौभाग्यशाली अनुभव करें
सिर से कृष्ण के चरणों को स्पर्श किया
हाथ जोड़ प्रार्थना की उनसे ।
“ माया, ब्राह्मदि का कारण आप हैं
भटक रहा था मोह के अंधकार में
आपके सत्संग से भाग गया
वह मोह अब सदा के लिए ।
माया ने छीन लिया था ज्ञान मेरा
लौटा दिया कृपाकर आपने
महान अनुग्रह की वर्षा की है
आपने मेरे ऊपर ये ।
स्नेहपाश में बांध लिया था
आपने अपनी माया से मुझे
उस बंधन को काट दिया अब
आत्मबोध की तीखी तलवार ने ।
महायोगेश्वर, नमस्कार आपको मेरा
कृपाकर अब मुझ शरणागत को
ऐसी आज्ञा दो जिससे आपके
चरणों में मेरी अनन्यभक्ति हो ।।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, उद्धव
अब तुम बद्रीवन चले जाओ
अलकनंदा के दर्शनमात्र से वहाँ
तुम्हारे सारे पाप ताप नष्ट हों ।
अपने आप में मस्त रहना वहाँ
रखना , इंद्रियाँ को वश में
स्वभाव सौम्य, चित शांत रहे
डूबे रहना मेरे स्वरूप में ।
मैंने जो तुम्हें शिक्षा दी है
उसका एकांत में अनुभव करना वहाँ
वाणी और चित मुझमें लगाकर
भागवत धर्म के प्रेम में रंग जाना ।
त्रिगुण गतियों को पार कर अंत में
मिल जाओगे मेरे स्वरूप में
संसार भेद को छिन्न भिन्न कर देता
कृष्ण के स्वरूप का ज्ञान ये ।
ऐसा उपदेश पाकर कृष्ण से
कृष्ण की परिक्रमा की उद्धव जी ने
संयोग - वियोग से होने वाले
सुख दुख से परे हो गए थे वे ।
क्योंकि शरण ले चुके भगवान की
फिर भी चलते समय वहाँ से
प्रेमावेश में भर गया चित उनका
अश्रुधारा बह रही आँखों से ।
भगवान के प्रति प्रेम करके, उनका
त्याग करना है संभव नहीं
उद्धव जी आतुर हो गए थे
उनके वियोग की कल्पना से ही ।
समर्थ ना हुए त्याग करने में उनका
विह्वल हो मूर्छित होने लगे
फिर कृष्ण की चरणपादुका सिर पर
रखकर प्रस्थान किया वहाँ से ।
भगवान की छवि हृदय में धारण कर
बद्रिकाश्रम पहुँच गये वो
तपोवन जीवन व्यतीत करने लगे
परमगति प्राप्त हुई उनको ।
कृष्ण ने जो उपदेश दिया उद्धव को
सार है आनंदमहासागर का
मनुष्य वह मुक्त हो जाता
श्रद्धा से जो सेवन करता इसका ।
उसके संग से सारा जगत् मुक्त हो
भक्तों को मुक्त करने के लिए ही
ज्ञान और विज्ञान का ये सार निकाला
जगत के मूल कारण भगवान ही ।