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Ajay Singla

Classics

4.3  

Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -२३६;श्री कृष्ण, बलराम का मथुरा गमन

श्रीमद्भागवत -२३६;श्री कृष्ण, बलराम का मथुरा गमन

5 mins
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श्री शुकदेव जी कहते हैं, अक्रूर का 

कृष्ण, बलराम ने सत्कार किया भली भांति 

मार्ग में अभिलाषाएं जो की उन्होंने 

सब की सब वे पूरी हो गयीं। 


अक्रूर जी के पास जाकर फिर 

कृष्ण ने पूछा, व्यवहार है कैसा 

उनके स्वजन और सम्बन्धियों से 

उनके मामा राजा कंस का। 


श्री कृष्ण ने कहा, चाचा जी 

बडा शुद्ध है ह्रदय आपका 

मथुरा में हमारे सगे सम्बन्धी 

सब वहां कुशल तो हैं ना। 


मामा हमारे नाममात्र के 

कंस तो कुल के लिए हमारे 

एक भयंकर व्याधि ही हैं 

और हमारे लिए खेद की बात ये। 


कि मेरे ही कारण मेरे 

सदाचारी माता पिता को 

यातनाएं झेलनी पड़ीं और 

बहुत से कष्ट उठा रहे वो। 


मेरे कारण ही उन दोनों के 

बच्चों को भी मार डाला गया 

अब आप बतलाइये आपका 

शुभागमन किस निमित से हुआ। 


ये प्रश्न सुन अक्रूर जी ने 

सब कुछ बता दिया था उन्हें 

कि घोर वैर ठान रखा 

कैसे यदुवंशियों से कंस ने। 


वासुदेव जी कोमारने का 

उद्यम भी कर चूका वो 

कंस का सन्देश और उसका उदेश्य 

सब बता दिया श्री कृष्ण को। 


ये भी बताया कि नारद जी ने 

उसे ये भी है बतलाया 

कि श्री कृष्ण का जन्म 

वासुदेव के घर हुआ था। 


बात सुनकर अक्रूर जी की 

कृष्ण बलराम हंसने लगे दोनो 

कंस की आज्ञा सुना दी 

तब उन्होंने अपने पिता को। 


नन्दबाबा ने गोपों को आज्ञा दी 

कि हम सब कल प्रातः काल में 

मथुरा की यात्रा करेंगे और 

राजा कंस को गो रस देंगे। 


बहुत बड़ा उत्सव हो रहा वहां 

और उसको देखने के लिए 

भारी प्रजा इकठ्ठी हो रही 

हम लोग भी देखेंगे उसे। 


परीक्षित, जब गोपियों ने सुना कि 

मनमोहन श्यामसुंदर हमारे 

और गौरसुन्दर बलराम जी 

अक्रूर के साथ मथुरा जा रहे। 


उनके ह्रदय में बड़ी व्यथा हुई 

व्याकुल हो गर्म सांसें भरतीं वो 

मुखकमल कुम्लाह गया उनका 

अचेत हो गयीं उनमें से कुछ तो। 


भगवान् के रूप का ध्यान आते ही 

चित्तवृत्तियाँ निवृत हो गयीं उनकी 

कुछ कृष्ण प्रेम में तल्लीन हुईं 

कुछ आत्मा में स्थित हो गयीं। 


कृष्ण लीलाओं का चिंतन करने लगीं 

कातर हो गयीं विरह के भय से 

आँखों से आंसू बह निकले 

इस प्रकार कहने लगीं वे। 


‘ धन्य हो विधाता ! विधान तो करते 

तुम सब कुछ, परन्तु तुमहारे 

ह्रदय में दया का कुछ थोड़ा सा 

लेश भी नहीं हमारे लिए। 


पहले तो तुम सौहार्द प्रेम से 

प्रेमियों को एक दूजे से जोड़ दो 

अभिलाषा पूर्ण भी न होती कि 

अलग अलग कर देते उनको। 


पहले हमें श्यामसुंदर का 

मुखकमल दिखलाया था तुमने 

और अब उस मुखकमल हो 

हमारी आँखों से ओझल कर रहे। 


बहुत ही अनुचित है ये तो 

इसमें अक्रूर का कोई दोष नहीं 

यह तुम्हारी ही करतूत है 

आखें तुम चीन रहे हमारी। 


इनके द्वारा निहारा करतीं थीं 

सृष्टि का सौंदर्य उनके अंगों में 

तुम उनको छीन रहे हो अब 

ऐसा नहीं करना चाहिए तुम्हे। 


श्यामसुंदर की तो आदत है 

स्नेह जगाने की नए नए लोगों से 

देखो तो सौहार्द और प्रेम उनका

चला गया एक ही क्षण में। 


हम घर, पति, पुत्र को अपने 

छोड़कर दासी बन गयीं उनकी 

परन्तु वे ऐसे हैं कि

हमारी और देखते तक नहीं। 


मथुरा की स्त्रियों के लिए 

प्रातः काल मंगलमय होगा 

आज पूरी हो जाएगी उनकी 

बहुत दिनों की अभिलाषा।


श्यामसुंदर प्रवेश करेंगे 

मथुरा में जब ,तब उनके 

मुखारविंद के मादक मधु को 

प्राप्त कर धन्य हो जाएँगी वे। 


मथुरा की युवतियों के मधुर वचनों से 

और उनकी सलज्ज मुस्कान से 

उनकी भाव भंगी से मोहित हो 

कृष्ण वहीँ पर रम जायेंगे। 


फिर हम गंवार ग्वालिनों के 

पास वो लौटकर क्यों आने लगे 

दर्शन जो लोग करेंगे मथुरा में 

निहाल हो जायेंगे सभी वे। 


देखो ये अक्रूर कितना निठुर है 

और कितना हृदयहीन है ये 

इधर हम इतनी दुखी हो रहीं 

और ये श्यामसुंदर को हमारे। 


ओझल करके हमारी आँखों से 

बहुत दूर ले जाना चाहता 

और तो और आश्वासन भी न दे 

हमें धीरज भी नहीं बंधाता। 


सचमुच ऐसे क्रूर पुरुष का 

अक्रूर नाम नहीं होना चाहिए 

हे सखी, ऐसे ही निठुर हैं 

श्यामसुंदर भी हमारे।


देखो सखी, वे रथपर बैठ गए 

प्रतिकूल हो रहा विधाता हमारे 

चलो हम स्वयं ही चलकर 

अपने श्यामसुंदर को रोक लें। 


सखी, हम आधे क्षण के लिए भी 

संग छोड़ न सकें कृष्ण का 

उनका वियोग उपस्थित होने पर 

हमारा चित है व्याकुल हो रहा। 


मीठी बातें, मुस्कान उनकी वो 

चितवन प्रेमालिंगन उनका 

एक क्षण के समान बीत गयीं 

रासलीला की वो विशाल रात्रियाँ। 


उनके बिना अब उनकी ही दी हुई 

अपार व्यथा को सहेंगी कैसे 

ग्वालबालों से घिरे होते थे वो 

जब वन में से वे लौट के आते। 


धुन से अपनी बांसुरी की और 

मंद मंद मुस्कान से अपनी 

हमारे ह्रदय को भेद डालते 

उनके बिना कैसे जी सकेंगी। 


शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित 

वाणी से गोपिओं ने सब कहा 

परन्तु एक एक मनोभाव उनका 

स्पर्श, आलिंगन कर रहा कृष्ण का। 


अत्यन्त व्याकुल हो गयीं थी 

विरह की सम्भावना से वे 

लाज छोड़कर, ‘ गोविंद, हे माधव ‘

रोकर पुकारने लगतीं ऐसे। 


रोते रोते रात बीत गयी 

सूर्योदय हुआ,अक्रूर उठ गए 

नंदबाबा आदि गोप सब 

भेंटें लेकर उनके पास गए। 


अक्रूर जी रथ पर सवार थे 

गोप दूध, दही, माखन ले 

अपने अपने छकड़ों पर रखकर 

वो उनके पीछे पीछे चले। 


गोपियाँ अपने कृष्ण के पास गयीं 

कृष्ण के सन्देश की अकांक्षा उन्हें 

वहीँ पर खड़ी हो गयीं वे 

ये देखा जब भगवान् कृष्ण ने। 


कि ह्रदय में जलन हो रही 

गोपियों के, मेरे मथुरा जाने से 

‘ मैं आऊँगा ‘, ये सन्देश भेजकर 

ढांढ़स बंधाया गोपियाँ का उन्होंने। 


जब तक रथ की ध्वजा दिख रही 

और धूल दिख रही उड़ती हुई 

तब तक वहां खड़ी रहीं वे 

वे तो हो गयीं थी कृष्णमयी। 


उनका चित कृष्ण के पास चला गया 

अभी भी उनको ये आस थी 

कि कुछ दूर जाकर ही शायद 

हमारे कृष्ण लौट आएं यहीं | 


परन्तु जब वे नहीं लौटे तो 

निराश होकर घर लोट गयीं वे 

रात दिन लीला का गान कर

संताप को हल्का करतीं अपने। 


श्री कृष्ण, बलराम, अक्रूर जी 

यमुना के तट पर जब पहुंचे 

यमुना जी का मीठा जल पिया 

फिर से रथ पर सवार हो गए। 


रथ पर बैठाकर दोनों भाईयों को 

अक्रूर जी ने आज्ञा ली उनसे 

यमुना के कुण्ड पर जाकर 

विधिपूर्वक स्नान करने लगे। 


डूबकी मारकर फिर कुण्ड में 

गायत्री का जाप करें वो 

जल के भीतर उसी समय देखा 

श्री कृष्ण और बलराम जी को।


मन में शंका उठी उनके कि

बैठे हैं रथपर दोनो भाई तो 

मैं उन्हें बैठाकर आया वहाँ 

जल में कैसे आ गए वो ।


ऐसा सोचकर सिर निकालकर

देखा तो, रथपर बैठे दोनो 

फिर से जल में डूबकी लगाई तो 

विराजमान वहाँपर भी वो ।


शेषजी स्वयं विराजमान वहाँ 

अत्यन्त शोभा हो रही उनकी 

घनश्याम उनकी गोद में 

चतुर्भुज मूर्ति उनकी भी ।


शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए हुए 

सनकादि, शिव,ब्रह्मा भी वहीं 

प्रजापति, प्रह्लाद और नारद आदि

स्तुति वे कर रहे थे उनकी ।


भगवान की ये झांकी निहारकर

अक्रूर जी प्रेम विह्वल हो गए 

परमानंद में डूब गए वो 

परम भक्ति प्राप्त हुई उन्हें ।


नेत्रों में आंसू आ गए 

भगवान के चरणों में सिर रखकर

प्रभु की स्तुति करने लगे 

प्रणाम करें उन्हें हाथ जोड़कर ।





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