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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -३०७ः ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग

श्रीमद्भागवत -३०७ः ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग

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उद्धव जी ने कहा, हे कृष्ण

आप की आज्ञा ही वेद हैं

उनमें कुछ कार्य करने की विधि

और कुछ को करने का निषेध है।


यह विधि, निषेध कर्मों के गुण और

दोष की परीक्षा करके होता

वर्णाश्रम भेद, प्रतिलोम, अनुलोम के

भेदों का बोध भी वेदों से होता।


कर्मों के उपयुक्त औत अनुपयुक्त द्रव्य

देश आयु और काल भी

तथा स्वर्ग और नर्क का भेद भी

होता है वेदों से ही।


विधि, निषेध भरे पड़े वेदों में 

यदि उनमें गुण और दोष में

भेद करने वाली दृष्टि ना होती

प्राणियों का कल्याण कैसे करें वे।


परमेश्वर, आपकी वाणी वेद हैं

पित्तर, देवता और मनुष्यों के लिए

श्रेष्ठ मर्गदर्शन को उनके

काम करता है क्योंकि।


उसी के द्वारा स्वर्ग, मोक्ष आदि

अदृष्ट वस्तुओं का बोध हो जाता

कौन साध्य है कौन है साधन

इसका निर्णय भी उसी से होता।


भेद दृष्टि गुण और दोषों में

ये आपकी वाणी वेद अनुसार ही

भेद का निषेध भी करती

आप की ये वेद वाणी ही।


भ्रम हो रहा ये विरोध देखकर

कृपाकर मेरा भ्रम मिटाइए

भगवान कृष्ण कहें, प्रिय उद्धव

सुनो अब मैंने क्या कहा वेदों में।


मनुष्य का कल्याण करने को

मैंने ही इन वेदों में

अधिकारी भेद से तीन प्रकार के

योगों का उपदेश दिया इनमें।


ज्ञान, कर्म और भक्तियोग ये

और परम कल्याण को उनके

इनके अतिरिक्त कोई भी

और उपाय ना उनके लिए।


कर्मों और फलों से विरक्त लोग जो

और त्याग उनका कर चुके

ज्ञानयोग उपयुक्त उनके लिए

उसके हैं अधिकारी वे।


इसके विपरीत वैराग्य ना हुआ

कर्मों, फलों का जिनके चित में

दुःख बुद्धि नही हुई उनमें

कर्मयोग के अधिकारी वे।


जो ना तो अत्यंत विरक्त हैं

ना हैं वे अत्यंत आसक्त ही

तथा किसी पूर्व जन्म के

किए हुए शुभ कार्यों से ही।


भाग्यवश मेरी लीला कथा में

श्रद्धा हो गयी है उनकी

भक्तियोग के अधिकारी वो

उन्हें सिद्धि मिले इसके द्वारा ही।


जितने विधि निषेध कर्म के सम्बंध में

उनके अनुसार तभी तक ही चले

जब तक जगत और उसके सुखों से

वैराग्य ना हो जाए उसे।


अथवा मेरी लीला कथा में

श्रद्धा नही हो जाती उसकी

इस प्रकार वर्ण, आश्रमों के अनुकूल

धर्म में स्थित रहकर ही।


यज्ञों के द्वारा बिना किसी कामना के

मेरी आराधना भी करता रहे

निषिद्ध कर्मों के दूर रहकर

निहित कर्मों का ही आचरण करे।


ऐसा करता है अगर वो

स्वर्ग, नर्क में नही जाना पड़ता

धर्म में निष्ठा रखने वाला

निषिद्ध कर्मों का त्याग कर देता।


वो पवित्र हो जाता है

मेरी भक्ति प्राप्त होती उसे

विधि - निषेधरूप कर्म का अधिकारी

मनुष्य शरीर बहुत ही दूर्लभ ये।


स्वर्ग नर्क में रहने वाले भी

इसकी अभिलाषा करते रहते

क्योंकि ज्ञान, भक्ति की प्राप्ति

हो सकती इसी शरीर से।


स्वर्ग नर्क का भोगप्रधान शरीर

किसी भी साधन के उपयुक्त नही

इसलिए स्वर्ग की अभिलाषा ना करे

और ना तो नर्क की ही।


और तो और इस मनुष्य शरीर की

कामना ना करनी चाहिए उसको

क्योंकि किसी शरीर में भी

गुणबुद्धि और अभिमान होने से।


प्रमाद होने लगता साधन में

वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति में अपने

मनुष्य शरीर मृत्यु ग्रस्त है फिर भी

परमार्थ की प्राप्ति हो सकती इससे।


मृत्यु होने के पूर्व ही इसलिए

ऐसे साधन करने चाहिएँ उसे

जिससे जन्म मृत्यु के चक्र से

छूट जाए वो सदा के लिए।


यह शरीर एक वृक्ष है

ज्ञानरूप पक्षी निवास करे इसमें

यमराज के दूत प्रतिक्षण

इस वृक्ष को हैं काट रहे।


पक्षी जैसे वृक्ष को छोड़कर

उड़ जाता है वैसे ही

अनासक्त जीव शरीर को छोड़कर

बन जाता मोक्ष का भागी।


परंतु आसक्त जीव जो होता

दुःख भोगता ही रहता वो

ये दिन और रात क्षीण कर रहे

क्षण क्षण में शरीर की आयु को।


यह जान जो भय से काँपे

वह आसक्ति छोड़कर इसमें

परमतत्व का ज्ञान प्राप्त कर

निरपेक्ष हो अपने जन्म मरण से।


और फिर अपनी आत्मा से भी

शान्त हो जाता है वो

समस्त शुभ फलों की प्राप्ति का

मूल ही है मनुष्य शरीर तो।


संसार सागर से पार जाने की

एक सहृदय नौका है ये

केवट बनकर पतवार का

संचालन गुरुदेव ही करते।


और स्मरणमात्र से ही मैं

अनुकूल वायु के रूप में

बढ़ाने लग जाता हूँ

लक्ष्य की और को इसे।


इतनी सुविधा होने पर भी

इस शरीर के द्वारा संसार से

पार नही हो जाता जो, वो कर रहा

आत्मा का अधःपतन अपने हाथों से।


पुरुष जब दोषदर्शन के कारण

कर्मों से ऊद्दिगन हो विरक्त हो जाए

जितेंद्रिय हो, योग में स्थित हो

अपना मन मुझमें धारण करे।


मन जब इधर उधर भटकने लगे

मनाकर, समझाबुझाकर वापस उसे

अपने वश में करकर उसे और

इंद्रियों, प्राणों को भी वश में कर ले।


मन को एक क्षण के लिए भी

सवतंत्र ना छोड़ दे

और बुद्धि के द्वारा ही

सदा अपने वश में करके उसे।


सांख्य शास्त्र में सृष्टि से लेकर

शरीर पर्यन्त सृष्टि का

जो क्रम बतलाया गया है

उसके अनुसार चिंतन करे वो उसका।


जिस क्रम में शरीर आदि का

क्रम बताया गया प्रकृति में

उस प्रकार ही मनुष्य को

जप - चिंतन है करना चाहिए।


यह क्रम तब तक करे वो

जब तक मन शांत, स्थिर ना हो जाए

जो पुरुष विरक्त हो गया

और संसार के पदार्थों में जिसे।


दुःख बुद्धि हो गयी, वो अपने

गुरुजनों के उपदेश से ही

अपने स्वरूप में संलग्न रहे

उसका मन चंचलता छोड़ दे।


ऐसे कर्मयोग, ज्ञानयोग और

भक्तियोग से ये मन अपना

परमात्मा का चिंतन करने लगे

नही और कोई उपाय इसके सिवा।


निन्दित काम कोई करता ही नही

वैसे तो योगी, परंतु यदि

कोई अपराध बन भी जाए तो

जला डाले उसे योग से तभी।


साधक जो विरक्त हो सब कर्मों से

श्रद्धा रखे मेरी लीला कथा में

किंतु इतना सब जानकर भी

समर्थ ना हो वो परित्याग में।


उसे चाहिए कि भोगों को तो भोगे

परंतु हृदय में दुःखजनक समझे उन्हें

मन ही मन इनकी निंदा करे

तथा उन्हें अपना दुर्भाग्य ही समझे।


और इस दुविधा की स्थिति से

छुटकारा पाने के लिए

श्रद्धा और प्रेम में भरकर

सदा मेरा ही भजन करे।


भक्ति योग के द्वारा ही इस तरह

बैठ जाता मैं उसके हृदय में

कामनाएँ नष्ट हों उसकी

क्षीण हों उसकी क़र्म कामनाएँ।


मगन रहता मेरे चिंतन में

और मेरी भक्ति से युक्त जो योगी

ज्ञान अथवा वैराग्य की

इसके लिए आवश्यकता नही होती।


उसका कल्याण तो हो जाता है

प्रायः मेरी भक्ति से ही

स्वर्ग, अपवर्ग, मेरा परमधाम वो

प्राप्त कर ले अनायास ही।


वैसे तो ये प्राप्त होते

कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य से

परंतु मेरे भक्त को प्राप्त हों

ये भक्तियोग के प्रभाव से।


निरपेक्षता ही दूसरा नाम है

सबसे श्रेष्ठ एवं पर्मकल्याण का

मेरी भक्ति प्राप्त होती उसे

जो निष्काम, निरपेक्ष होता।


मेरे अनन्य प्रेमी भक्तों का

और उन समदर्शी महात्माओं का

जिनको बुद्धि से अतीत 

परमतत्व प्राप्त हो चुका।


निधि निषेध से होने वाले

पुण्य, पाप से सम्बंध ना उनका

आश्रय लेते वो मेरे बतलाए

ज्ञान, भक्ति और क़र्ममार्गों का।


उसके बाद फिर वो मेरे

परमधाम को प्राप्त होते

परब्रह्मतत्व को वो क्योंकि

पूरी तरह जान हैं लेते।


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