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Ajay Singla

Classics

5  

Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत - २०५; बाललीला

श्रीमद्भागवत - २०५; बाललीला

19 mins
361


घुटनों के बल चलने लगे 

राम और श्याम कुछ ही दिनों में 

पांव और कमर के घुँगरू 

रुनझुन बजते उनके चलने से। 


स्नेह से भर जाती थीं 

लीला देखकर माताएं उनकी 

कीचड़ से लथपथ होकर लौटते जब 

सुंदरता बढ़ जाती और भी। 


आते ही माताएं उनको 

गोद में लेकर दूध पिलातीं 

मंद मंद मुस्कान देख उनकी 

आनंद से वे भर जातीं। 


राम और श्याम जब थोड़े बड़े हुए 

ऐसी ऐसी लीलाएं करते वो 

कामकाज छोड़ कर अपना 

गोपियां देखती रह जातीं उनको। 


परमानन्द में मग्न हो जातीं 

दोनों बालक बड़े चंचल थे 

माताएं बरजतीं उनको 

पर वो उनकी नहीं सुनते थे। 


बिन सहारे वो खड़े होने लगे 

गोकुल में चलने फिरने लगे 

ग्वाल बालों को साथ में लेकर 

ब्रज में निकल पड़ते वे। 


ब्रज की भाग्यवती गोपिओं से 

निहाल करते हुए खेल खेल में 

उनकी बचपन की चंचलताएं 

गोपियों को बड़ी सुंदर लगें। 


एक दिन सब की सब इकट्ठी होकर 

नन्द बाबा के घर आईं वो 

यशोदा माता को सुना सुनकर 

कहने लगीं कृष्ण की करतूतों को। 


' आरी यशोदा, तेरा ये बालक 

नटखट हो गया बड़ा ही 

गाय को दुहते समय बछड़ों को 

खोल देता है ये यों ही। 


जब हम डांटतीं हंसने लगता 

ये चुराता हमारा दूध दही 

खुद खाता, बालकों को देता 

फोड़ देता माटों को भी। 


छींके पर रखते दूध दही जब 

वहां से भी माखन चुराता ये 

कभी चढ़कर ऊखल पर और 

कभी कंधे पर किसी साथी के। 


भोला भाला बना बैठा है 

बड़ा ही, तुम्हारे सामने ये '

ऐसे कह रहीं और देख कृष्ण को 

मुस्कुराती भी जा रहीं वे। 


उनकी दशा देख यशोदा 

गोपियों के मन का भाव ताड़ गयीं 

ह्रदय में स्नेह की बाढ़ आयी और 

कन्हैया को वो डांट भी न सकीं। 


श्री कन्हैया लाल एक दिन 

घर में ही माखन चुरा रहे थे 

मणि के खम्भे में पड़े हुए 

प्रतिबिम्ब पर दृष्टि पड़ी अपने। 


वे थोड़ा डर गए थे 

अपने प्रतिबिम्ब से बोले 

' भैया, बराबर का भाग स्वीकार है 

मत कहियो मेरी मैया से '। 


लाडले की तोतली बोली सुनकर 

बड़ा आश्चर्य हुआ यशोदा को 

श्री कृष्ण ने बात बदल दी 

माता जब भीतर आयीं तो। 


अपने प्रतिबिम्ब को दिखाकर 

कहने लगे,' मैया कौन है ये 

घर में हमारे घुस गया है 

तुम्हारा माखन चुराने के लिए। 


मैं मना करता तो मानता नहीं 

क्रोध करूं मैं तो ये भी क्रोध करे 

मैया, और मत सोचना कुछ तुम 

माखन का लोभ नहीं मेरे मन में '। 


प्रतिभा देख दूध मुहें शिशु की 

वात्सल्य स्नेह के आनंद में 

मग्न होकर यशोदा ने 

कृष्ण को लगा लिया ह्रदय से। 


एक दिन जब माता बाहर गयीं थीं 

कृष्ण माखन चुरा रहे थे घर में 

इतने में लौट आयीं यशोदा 

' कन्हैया कहाँ तुम', लल्ला को पुकारें वे। 


माता की बात सुनते ही डरकर फिर 

माखन चोरी से अलग हो गए 

थोड़ी देर चुप रहकर फिर 

यशोदा मैया से वे थे बोले। 


यह जो तुमने मेरे कंकण में 

पद्मराग जड़ दिया है उसके 

लपट से मेरा हाथ जल रहा 

हाथ डाला इसीलिए माखन में। 


मधुर तोतली बोली सुन लल्ला की 

माता ने उनको गोद में लिया 

लल्ला पर बहुत प्यार आ रहा 

प्रेम से माथा था चूम लिया। 


माखन चोरी करने पर एक दिन 

माता ने धमकाया था उन्हें 

आंसुओं की झड़ी लग गयी 

डांट सुन, लल्ला के नेत्रों में। 


कर कमल से आँखें मलने लगे 

गाला भी रूंध गया था उनका 

रुआंसे से हो रहे वो 

मुँह से बोला नहीं जाता था। 


माता यशोदा का धैर्य टूट गया 

कन्हैया का मुँह पोंछा आँचल से 

प्यार से गले लगाकर बोलीं 

' चोरी नहीं ये, है सब तुम्हारा ये'। 


एक दिन पूर्ण चन्द्रमाँ की रात में 

यशोदा बैठीं गोपियों के संग में 

दृष्टि पड गयी चन्द्रमाँ पर 

कृष्णचँद्र की खेलते खेलते। 


माँ की चोटी पकड़कर खींची 

' मैं लूँगा, मैं लूँगा', बोले 

माँ को बात समझ न आई 

ग्वालिनों की तरफ देखा उन्होंने। 


ग्वालिनों ने प्यार से फुसलाकर पूछा 

'लल्ला, क्या चाहिए है तुम्हे 

दूध, दही, माख ये सब 

मिलेगा तुमको जो भी चाहिए'। 


कृष्ण ने धीरे से ऊँगली उठाकर 

चन्द्रमाँ की और संकेत किया 

गोपियां बोलीं, अरे बाप रे 

माखन का लोंदा थोड़ी है ये। 


यह हम तुम्हे कैसे देंगे 

यह तो प्यारा हंस आकाश में 

कृष्ण कहें, हंस ही मांग रहा हूँ 

मैं भी तो खेलने के लिए। 


अब तो और भी मचल गए 

धरती पर लगे पांव पीटने 

हाथ से गला दबाकर 

' दो, दो ', कहकर वे रोने लगे। 


दूसरी गोपियों ने कहा फिर 

बेटा, इन्होने तुम्हे बहला दिया 

 राजहंस नहीं ये, ये तो है 

आकाश में रहने वाला चन्द्रमाँ। 


श्री कृष्ण हठ कर बैठे कि 

मुझे तो ये ही चाहिए 

इसके साथ खेलने की बड़ी 

लालसा है मेरे मन में। 


तब यशोदा ने गोद में लिया, बोलीं 

यह न हंस, न ये चन्द्रमाँ है 

है तो यह माखन ही परन्तु 

तुम्हे देने योग्य नहीं है। 


देखो इसमें ये काला काला जो 

वो विष लगा हुआ है 

इससे बढ़िया होने पर भी 

इसे कोई खाता नहीं है। 


कृष्ण ने पूछा ,कि मैया 

विष कैसे लग गया है इसमें 

बात बदल गयी, गोद में लेकर 

मैया लगी उसे कथा सुनाने। 


माँ बेटे में प्रश्नोत्तर हो रहे 

यशोदा कहें,' एक क्षीरसागर था '

कृष्ण कहें' मैया,' कैसा ये'

यशोदा ने कहा ' समुन्द्र दूध का '। 


कृष्ण पूछें ' मैया कितनी गायों ने 

दूध दिया तो समुन्द्र बन गया 

यशदा कहे ' सुनो कन्हैया 

दूध नहीं है ये गायों का '। 


श्री कृष्ण कहें ' अरे, ओ मैया 

बहला रही क्यों तुम हो मुझे 

तुम कह रही ये गाय का नहीं 

दूध कैसे हो बिना गाय के ? '। 


यशोदा कहें ' जिसने गाय को बनाया 

दूध बना सकता बिना उसके '

कृष्ण पूछें ' वो कौन है?'

' भगवान् हैं' ये कहा यशोदा ने। 


श्री कृष्ण कहें ' मैया, आगे क्या ?'

यशोदा बोलीं ' देवता दैत्यों में 

एक बार लड़ाई हुई और 

क्षीरसागर को मथा भगवान् ने। 


मंदराचल की रइ, वासुकि नाग की रस्सी 

देवता दानव एक एक और लगे '

श्री कृष्ण पूछें ' मैया मेरी 

गोपियां दही मथती हैं जैसे ?'। 


यशोदा कहें ' हाँ वैसे ही, उसीसे 

विष पैदा हुआ कालकूट नाम का '

कृष्ण कहें ' दूध से कैसे निकला 

विष तो सांपों में है होता'। 


यशोदा बोलीं ' जब शिव शंकर ने 

विष पिया तो उसकी फुइयां जो 

धरती पर गिर पड़ी थीं 

सांपों ने पी लिया उनको। 


उसीसे सांप विषधर हो गए 

ऐसे ही दूध से निकला विष ये '

चन्द्रमाँ को दिखलाकर बोलीं 

ये माखन भी निकला उसीसे। 


थोड़ा सा विष इसमें भी लग गया 

लोग कलंक कहते हैं इसीको 

इसलिए तुम इसको छोड़ दो 

घर का ही तुम माखन खाओ। 


कथा को सुनते सुनते ही 

आँखों में नींद आ गयी कृष्ण के 

मैया ने गोदी से उतारकर 

पलंग पर सुला दिया उन्हें। 


भगवान् के लीलाधाम, लीलापत्र 

और लीलाशरीर भगवान् का 

ये सब प्राकृत नही होते 

न प्राकृत है उनकी लीला। 


देह देही का भेद नहीं उनमें 

शरीर भूतसमुदाय से बना नहीं 

यह माखन चोरी की लीला

इस प्रकार है अप्राकृत, दिव्य ही। 


भगवान् के नित्य परमधाम मे

अभिन्नरूप से नित्य निवास करने वालीं 

नित्यसिद्धा गोपिओं की तपस्या 

जो है कठोर बहुत ही। 


उनकी लालसा इतनी है 

और प्रेम इतना व्यापक कि 

लग्न उनकी इतनी सच्ची थी 

कि भगवान् उनकी इच्छानुसार ही। 


उनको सुख पहुँचाने के लिए 

उनकी इच्छित पूजा ग्रहण करें 

चीरहरण करके उनका रहा सहा 

व्यवधान का पर्दा हटा दें। 


और रासलीला करके उनको 

दिव्य सुख पहुंचाते थे 

नित्यसिद्धा के सिवा कुछ और गोपियां भी 

अवतीर्ण हुई थीं उसी समय। 


अपनी महान साधना के फलस्वरूप 

गोपियों के रूप में प्रभु की सेवा के लिए 

अवतीर्ण हुईं कुछ देवांगनाएँ

और श्रुतियां जो पूर्वजन्म में। 


कुछ तपस्वी, ऋषि, भक्तजन भी आये 

और श्रुतिरूप गोपिआँ थीं जो 

निरंतर वर्णन करते रहने पर भी प्रभु का 

साक्षात रूप में देख न सकें उनको। 


बात जानकर विहार की गोपिओं के 

गोपिओं की उपासना करती हैं वे 

परिणत हो जाती अंत में 

ये सब भी गोपी रूप में। 


प्रियतम रूप में प्राप्त करती हैं 

साक्षात भगवान् को अपने 

उद्गीता, सुगीता, कलगीता 

उनमें मुख्य श्रुतियों के नाम थे। 


भगवान् के रामावतार में उन्हें 

देखकर मुग्ध होने वाले 

प्रभु के स्वरुप सौंदर्य पर 

न्योछावर अपने को कर देने वाले। 


सिद्ध, ऋषिगण जिनकी प्रार्थना से 

प्रसन्न हो प्रभु ने वर दिया उन्हें 

कि गोपी होकर प्राप्त करोगे मुझे 

गोपीरूप में व्रज में अवतीर्ण हुए वे। 


ऐसे ऋषिओं का वर्णन है जिन्होंने 

वर्षों तक कठिन तपस्या करके 

गोपीस्वरूप प्राप्त किया था 

कुछ का वर्णन है ऐसे। 


उग्रतपा नाम के ऋषि एक 

श्रीकृष्ण के ध्यान से 

सौ कल्पों बाद सुनन्द गोप की 

कन्या सुनन्दा हुए थे। 


एक सत्यतपा नाम के मुनि 

कृष्ण की उपासना करते थे 

दस कल्प के बाद सुभद्र नामक 

गोप की कन्या सुभद्रा हुए थे। 


हरिधमा नाम के एक ऋषि थे 

तीन कल्प के पश्चात वे 

सारंग नाम गोप के घर 

रंगवेणी नाम से अवतीर्ण हुए। 


ब्रह्मज्ञानी ऋषि जाबालि नाम के 

एक बाबड़ी पर उन्होंने 

सुंदर स्त्री देखि, पूछा कौन तुम 

उस स्त्री ने फिर कहा था ये। 


ब्रह्मविद्या मैं, योगी महात्मा बड़े 

मुझको ढूंढा करते हैं वो 

पर प्राप्त न कर सकी अभी प्रेम कृष्ण का 

शून्य देखती हूँ अपने को। 


जाबालि ने उनके चरणों में गिरकर 

दीक्षा ली, वर्षों ध्यान करते रहे 

नौ कलप के बाद प्रचंड गोप के घर 

चित्रगंधा रूप से प्रकट हुए। 


शुचिश्रवा और सुवर्ण देवतत्वज्ञ थे 

कुशध्वज ऋषि के पुत्र वे  

कृष्ण का ध्यान किया तो कलप के बाद फिर 

सुधीर नामक गोप के घर जन्मे। 


कल्पों तक साधना करके और भी 

ऋषि मुनि यों ही गोपियां बने 

अभिलाषा पूर्ण करने को उनकी कृष्ण 

उनकी मनचाही लीला करते थे। 


कोई आश्चर्य की बात नहीं इसमें 

और न कोई अनाचार की बात है 

रासलीला के प्रसंग में स्वयं 

भगवान् ने गोपियों से कहा है। 


' गोपियो, तुमने लोक परलोक के 

सारे बंधनों को काटकर मुझको 

निष्काम प्रेम किया है जो उसका 

बदला न चुका सकूं, चाहूँ भी तो। 


अनंत काल तक, अलग अलग 

मैं तुममें से प्रत्येक के लिए भी 

जीवन धारण करके भी आऊं तो 

तुम्हारा ऋणी हूँ, ऋणी रहूंगा तब भी '। 


गोपियों का तन, मन, धन सभी कुछ 

प्राणप्रियतम श्री कृष्ण का था 

समय में जीतीं वो कृष्ण के लिए 

बुद्धि में कृष्ण के सिवा कुछ भी न था। 


श्री कृष्ण के लिए ही 

उन्हें ही सुख पहुँचाने के लिए 

श्री कृष्ण की निजी सामग्रियों से ही 

श्री कृष्ण की पूजा करतीं वे। 


सुखी देखकर श्री कृष्ण को 

वे सब सुखी होती थीं 

प्रातःकाल जब नींद टूटती 

रात को जब सोने को होतीं। 


वे जो कुछ भी करती थीं 

सब कृष्ण के लिए ही करतीं 

निद्रा भी उनकी कृष्ण में ही होती 

स्वपन में भी उन्हें देखतीं। 


दही जमाते समय रात को 

मधुर छवि का ध्यान करती हुईं 

' मेरा दही सुंदर जमे '

प्रत्येक गोपी यह अभिलाषा करती थी। 


श्री कृष्ण के लिए बिलोकर 

बढ़िया, बहुत सा माखन निकालूं 

जितने पर कृष्ण का हाथ पहुँच सके 

उतने ऊँचे छींके पर डालूं। 


मेरे प्राणधन श्री कृष्ण फिर 

ग्वालों साथ, मेरे घर आएं 

माखन खाएँ और लुटाएं 

आंगन में मेरे नाचे गायें। 


किसी कोने में छिपकर मैं 

लीला को अपनी आँखों से देखूं 

जीवन सफल हो जाये मेरा 

पकड़कर उन्हें ह्रदय से लगा लूँ। 


सूरदास जी ने भी ऐसा ही कहा है 

एक दिन श्यामसुंदर कह रहे 

' मैया, पकवान के लिए कहती तू 

पर माखन भाता है मुझे '। 


वहीँ पीछे एक गोपी खड़ी थी 

श्यामसुंदर की बात सुन रही 

मन में मनोकामना हुई कब मैं 

अपने घर माखन खाता देखूँगी। 


कृष्ण माखन के पास बैठेंगे 

मैं वहां छिपकर रहूंगी 

प्रभु तो अन्तर्यामी हैं 

बात जान गए गोपी के मन की। 


घर पहुँच गए उस गोपी के 

माखन खाया जब उसके घर का 

खुशी से फूले न समाई 

गोपी को इतना आनंद मिला था। 


आनंद ह्रदय में न समा रहा 

सहेलियों ने पूछा फिर उसको 

' अरे, तुम्हे कोई खजाना मिल गया कया 

मुस्कुरा रही वो प्रेम विह्वल हो। 


रोम रोम खिल उठा उसका 

मुँह से वाणी न निकली 

सखिओं ने कहा, क्या बात है 

हमको सुनाती क्यों नहीं। 


तब मुँह से इतना ही निकला 

रूप अनूप आज देखा मैंने 

फिर वाणी रुक गयी उसकी 

प्रेम के आंसू बहने लगे। 


सभी गोपिओं की यही दशा थी 

मन लगा रहता कृष्ण में 

रात रात भर जागकर 

प्रातःकाल की बाट देखतीं वे। 


जल्दी जल्दी दही को मथकर 

माखन निकाल छीकें पर रखतीं 

आकर लौट न जाएं श्यामसुंदर कहीं 

उनकी प्रतीक्षा में व्याकुल रहतीं। 


वे अभी तक क्यों नहीं आये 

यशोदा ने रोक लिया न हो कहीं 

इन्ही विचारों से आंसू बहाती हुईं 

क्षण क्षण दरवाजे पर जातीं। 


रास्ता देखतीं लाज छोड़ कर 

कभी पूछती सखियों से वे 

युग के समान होता था 

एक एक निमेष उनके लिए। 


ऐसी भाग्यवान गोपियों की 

मनोकामना प्रभु पूर्ण करते 

पधारे वो सुखी करने के लिए ही 

ब्रजवासिओं को, जो निजजन उनके। 


नन्दबाबा की लाखों गायें थीं 

माखन तो घर पर बहुत था उनके 

परन्तु केवल नन्दबाबा के नहीं 

वे सभी ब्रजवासिओं के अपने थे। 


सभी को सुख देना चाहते थे 

गोपिओं की लालसा पूरी करने के लिए 

उनके घर जाते थे वे 

चुरा चुराकर माखन थे खाते। 


गोपियों की पूजा पद्धति का 

भगवान् के द्वारा स्वीकार था ये 

भक्तवतसल भगवान् भक्त की 

पूजा स्वीकार कैसे न करें ?


संसार में या संसार के बाहर 

ऐसी भी कोई वस्तु जो 

भगवान् की अपनी नहीं है 

और उसकी चोरी करें वो ?


गोपियाँ का सर्वस्व तो भगवान् का था ही 

सारा जगत ही उन्हीं का है ये 

जब सब कुछ ही उनका तो 

वे कैसे चोरी कर सकते है। 


माखन चुराना गोपियों से 

भगवान् की ये दिव्य लीला थी 

गोपियां प्रेम से चोर कहती उन्हें 

क्योंकि वे उनके चितचोर तो थे ही। 


एक दिन बलराम और ग्वालबाल सब 

कृष्ण के साथ में खेल रहे थे 

'कन्हैया ने मिट्टी खाई है'

यशोदा को जाकर कहा उन्होंने। 


यशोदा ने कृष्ण का हाथ पकड़ लिया 

और कहा, 'मिट्टी क्यों खाई 

बहुत ही नटखट हो गया तू 

और हो गया बहुत ढीठ भी। 


तेरे सखा और बलदाऊ भी 

दे रहे हैं ये गवाही '

श्री कृष्ण कहें,' बात न मानो इनकी 

मैंने मिट्टी नहीं है खाई। 


इनकी बात को जो मानती तो 

मुख तुम्हारे सामने मेरा 

अपनी आँखों से देख लो '

ये कह कृष्ण ने मुँह खोल दिया। 


परीक्षित, कृष्ण तो अनन्त हैं 

यशोधा देखे उनके मुँह में 

विद्यमान सम्पूर्ण जगत है 

असमंजस में पड गयीं बड़े। 


सोचने लगी यह कोई स्वपन है 

या भगवान् की माया कोई 

कोई भ्रम तो नहीं हो गया 

मेरी ही बुद्धि में कहीं। 


एक क्षण तो माता यशोदा 

श्री कृष्ण का तत्व समझ गयीं 

उनके ह्रदय में संचार कर दी तब 

कृष्ण ने वैष्णवी माया अपनी। 


तुरंत वो घटना भूल गयीं वो 

लाल को गोद में उठा लिया 

राजा परीक्षित ने पूछा, भगवन 

मुझे ये भेद बताईये जरा। 


कि नंदबाबा ने ऐसा कौन सा 

मंगलमय साधन किया था 

और परमभाग्यवति यशोदा ने 

ऐसी कौन सी की तपस्या। 


जिस कारण स्वयं भगवान् ने 

श्रीमुख से स्तनपान किया उनका 

पवित्र बाल लीलाओं का उनकी 

सुख लूट रहे नन्द यशोदा। 


उनके जन्मदाता माता पिता को भी 

देखने को जो मिल न सकीं 

श्रवण कीर्तन करने से ही जिनका 

शांत हों सब पाप ताप भी। 


मुझे इसका कारण बताईये 

नन्द यशोदा को ये सब मिला कैसे 

श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित 

श्रेष्ठ वसु थे नन्द, पूर्व जन्म में। 


उनका नाम द्रोण था और 

उनकी पत्नी का नाम धरा था 

ब्रह्मा जी की तपस्या करके 

उन्होंने उनसे ये कहा था। 


जब पृथ्वी पर जन्म हो हमारा 

कृष्ण में अनन्य भक्ति हो 

वही द्रोण नन्द हुए और 

धरा जन्मीं यशोदा के रूप में। 


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