श्रीमद्भागवत -३०८ः गुण दोष व्यवस्था का स्वरूप और रहस्य
श्रीमद्भागवत -३०८ः गुण दोष व्यवस्था का स्वरूप और रहस्य


भगवान कृष्ण कहते हैं उद्धव
तीन मार्ग मेरी प्राप्ति के
भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग
और जो छोड़कर इन्हें ।
इंद्रियों के द्वारा क्षुद्र भोग भोगते
भटकें जन्म मृत्यु के चक्र में
दृढ़ निष्ठा रखना ही गुण है
अपने अधिकार के अनुसार धर्म में ।
और इसके विपरीत दोष है
अनाधिकार चेष्टा रखना ही
गुण दोष दोनों की व्यवस्था
अधिकार के अनुसार ही की जाती ।
किसी वस्तु के अनुसार नही ये
वस्तुओं के समान होने पर भी
विधान किया गया शुद्धि अशुद्धि
गुण दोष, शुभ अशुभ आदि का भी ।
उससे लाभ है कि मनुष्य अपनी
वासनामूलक सहजप्रवृति के द्वारा
इसके जाल में फँसकर
शास्त्रानुसार जीवन को नियंत्रित करता ।
यह आचार मैंने ही बनाए
मनु आदि का रूप धारण करके
कर्म का भार ढोने वाले
क़र्मजड़ों के उपदेश के लिए ।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश
मूल कारण हैं पंचभूत ये
ब्रह्मा से लेकर पर्वत - वृक्ष पर्यन्त
सभी प्राणियों के शरीर के ।
इस तरह से सब शरीर की
दृष्टि से तो समान हैं ही
और आत्मा की दृष्टि से
आत्मा भी उनका एक ही ।
यद्यपि पंचभूत समान सभी में
फिर भी वेदों ने इनके
वर्णाश्रम आदि अलग अलग नाम
और रूप आदि बना दिए ।
जिससे वासना मूलक प्रवृतियों को अपनी
नियंत्रित करके सिद्ध कर सकें
इन चार पुरुषार्थों को
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जो हैं ये ।
देश, काल, फल, निमित, अधिकारी
और धान्य आदि वस्तुओं के
गुण दोष का विधान भी
मेरे द्वारा किया गया है इसीलिए ।
ताकि उच्छ्रूँखल प्रवृति ना हो लोगों की
कर्मों में, मर्यादा ना भंग हो
देशों में वह देश अपवित्र है
जिसमें कृष्णसार ना हो ।
जिसके निवासी ब्राह्मण भक्त नही
अपवित्र है वो देश भी
और कीकर देश तो अपवित्र है
कृष्णसार मृग होने पर भी ।
इस प्रदेश में जहां संत पुरुष रहें
वो जगह अपवित्र नहीं
और अपवित्र होता है
संस्कार रहित, ऊसर आदि स्थान भी ।
समय वही पवित्र है जिसमें
कर्म करने योग्य सामग्री मिल सके
और कर्म भी हो सके जिसमें
इसके विपरीत जिस समय में ।
कर्म करने की सामग्री ना मिल सके
दोषों के कारण कर्म ना हो सके
अशुद्ध और अपवित्र वो समय
और इस तरह ही से ।
पात्र जल से शुद्ध होता है
और अशुद्ध हो मूत्रादि से
और अगर कोई शंका हो
किसी वस्तु की शुद्धि अशुद्धि में ।
तब ब्राह्मणों के वचन से
शुद्ध हो जाती ये वस्तुएँ
अन्यथा सब की सब
अशुद्ध ही रहती हैं ये ।
जल छिड़कने से पुष्पादि शुद्ध हों
सूंघने से अशुद्ध हो जाते
तत्काल से पकाया अन्न शुद्ध और
बासी को अशुद्ध मानते ।
बड़े सरोवर, नदी आदि का जल शुद्ध
अशुद्ध माना जाता छोटे गड्ढों का
शक्ति, अखुति, बुद्धि, वैभव अनुसार ही
पवित्रता, अपवित्रता की होती व्यवस्था ।
धनी - दरिद्र, बलवान - निर्बल
बुद्धिमान - मूर्ख, तरुण - वृद्धावस्था के
भेद से अंतर पड़ जाए
शुद्धि - अशुद्धि की व्यवस्था में ।
अनाज, लकड़ी, हाथी दांत आदि
सूत, सोना, घी, चाम और घड़ा
समय आने पर अपने आप इनमें
हवा लगने से होती शुद्धता ।
आग में जलाने से भी
और मिट्टी लगाने से इनमें
अथवा जल से धोने से ही
ये सब शुद्ध हो जाते ।
अशुद्ध पदार्थ जम गाएँ हों
जब किसी वस्तु में तो
छीलने से या मिट्टी मलने से
जब पदार्थ की गंध और लेप ना रहे ।
वह वस्तु आ जाए पूर्व रूप में
तब शुद्ध समझना चाहिए उसको
स्नान, दान, तपस्या, संस्कार, कर्म
और मेरे स्मरण से ही चित शुद्ध हो ।
गुरुमुख से सुनकर भलिभाँति
हृदयंगम कर लेने से मंत्र की
और समर्पित कर देने से मुझको
कर्म की शुद्धि है होती ।
इस प्रकार देश, काल, पदार्थ,कर्ता
मंत्र और कर्म इन छहो के
शुद्ध होने से धर्म होता
अधर्म होता अशुद्ध होने से ।
शास्त्रविधि से कहीं कहीं
गुण दोष, दोष गुण हो जाता
दूध आदि का व्यापार वैश्य के लिए निहित
परंतु ब्राह्मण के लिए निषिद्ध होता ।
इससे यह निश्चय होता है कि
कल्पित है गुण दोषों का भेद ये
पतित आचरणों से पतितों को ना पाप लगे
त्याज्य होता ये श्रेष्ठ पुरुषों के लिए ।
पत्नी का संग ग्रहस्थों के लिए पाप नही
घोर पाप सन्यासी के लिए
उद्धव जी, वो गिरेगा क्या
सोया हुआ है पहले से जो नीचे ।
जिन जिन दोषों और गुणों से
मनुष्य का चित उपरत हो जाता
उन्हीं वस्तुओं के बंधन से
वह भी मुक्त हो जाता ।
निवृत्ति रूप धर्म ही यह
आधार है परम कल्याण का
क्योंकि शोक, मोह के भय को
यह ही है मिटाने वाला ।
उद्धव जी विषयों में कहीं भी
गुणों का आरोप करने से
आसक्ति हो जाती है
साथ में उस वस्तु के ।
आसक्ति से पास रखने की कामना
और कामना की पूर्ति में
किसी प्रकार की बाधा पड़ने पर
परस्पर कलह होती लोगों से ।
कलह से डाह, क्रोध उत्पन्न हो
क्रोध से फिर बोध ना रहता
अपने हित और अहित का
और अज्ञान उसपर छा जाता ।
अज्ञान से चेतना शक्ति लुप्त हो
मनुष्यता नही रह जाती उसमें
पशुता आ जाती है और
अस्तित्वहीन हो जाते हैं वे ।
मूर्छित या मुर्दा समझो स्थिति उनकी
और ऐसी स्थिति में ना तो
स्वार्थ ही बनता है उसका
बात ही क्या परमार्थ की तो ।
विषय का चिंतन करते करते
विषय रूप हो जाता है वो
और वृक्षों के समान जड़
हो जाता उसका जीवन तो ।
ना तो उसे अपना ज्ञान रहे
ना ज्ञान रहता दूसरे का
और सर्वथा ही मनुष्य वह
आत्मवंचित है हो जाता ।
सवर्गादि का फल वर्णन करने वाली श्रुति
परम पुरुषार्थ नही बतलाती उसको
परंतु बहुर्मुख पुरुषों के लिए कर्मों में
रुचि के लिए वर्णन करे वैसा वो ।
जन्म से ही आसक्त सब मनुष्य
यही बाधक उनकी आत्मोन्नति में
उनके अनर्थ का कारण भी वही
परमार्थ को अपने वो नही जानते ।
इसलिए सवर्गादि का जो वर्णन मिलता
ज्यों का त्यों सत्य समझकर
देवादि योनियों में भटकते रहते
वृक्षादि योनियों में आ जाते फिर ।
ऐसी अवस्था में विद्वान या वेद कोई
प्रवृत्त करेगा उन्हें उन्हीं विषयों में
वेदों का ये अभिप्राय ना समझकर
लोग लोकों का वर्णन देखते ।
और उन्ही को परम फल मन
दुर्बुद्धि लोग भटक हैं जाते
परंतु वेदवेता लोग श्रुतियों का
ऐसा तात्पर्य नही बतलाते ।
विषय वासना में जो लोग फँसे हुए
सब कुछ समझ स्वर्गादि लोकों को
यज्ञादि कर्मों में ही मुग्ध हो जाएँ
देवलोक, पितरलोक मिलें स्वर्ग में उनको ।
अपने निजधाम आत्मपद का
ऐसे मनुष्यों को पता नही लगता
केवल कर्मों की साधना पास उनके
इंद्रियों की तृप्ति है फल जिसका ।
वो यह नही जानते कि
जगत की उत्पत्ति करने वाला
परम परमात्मा परमेश्वर
मैं उनके हृदय में बैठा ।
दुष्टतावश अपनी इंद्रियों की
तृप्ति के लिए पशुओं के मास से
यज्ञ करके देवता, पितरों को
यजन का ढोंग हैं करते ।
उद्धव जी, सवर्गादि परलोक सब
स्वप्न के दृश्यों के समान वे
उनकी बातें सुनने में मीठी लगें
परंतु असत हैं वो वास्तव में ।
सकाम पुरुष भोगों के लिए वहाँ के
अनेकों प्रकार के संकल्प कर लेते
और सकामयज्ञों के द्वारा
नाश करते वो धन का अपने ।
रजोगुण, सत्वगुण और तमोगुण
में स्थित रहते हैं वे
और रजोगुणी, सत्वगुणी, तमोगुणी
इंद्रादि देवताओं की उपासना करते ।
सोचें वे कि इन यज्ञों के द्वारा
स्वर्ग में जाकर आनंद भोगेंगे
और फिर जन्म होगा हमारा
किसी बड़े कुलीन परिवार में ।
उन्हें अच्छी नहीं लगती है
बातचीत भी मेरे सम्बंध की
कृष्ण कहें कर्म, उपासना और ज्ञान
तीन कांड हैं वेदों में, उद्धव जी ।
इन तीनों काण्डों के द्वारा
प्रतिपादित विषय हैं जो
वो हैं कि आत्मा और ब्रह्म
दोनों की एकता कैसे हो ।
सभी मंत्र और मंत्रद्रष्टा ऋषि
खोलकर इन विषयों को बतलाते नही
गुप्त रूप से बतलाते हैं वे
गुप्त रूप से ही बतलाऊँ मैं भी ।
क्योंकि सब लोग अधिकारी नही इसके
अंतकरण शुद्ध होने पर ही
और जो मुझमें भक्ति रखते
उनको ही ये बात समझ में आती ।
शब्दब्रह्म वेदों का नाम है
मूर्ति हैं मेरी ही वे
रहस्य समझना अत्यंत कठिन उनका
वे परा,यश्यन्त, मध्यम वाणी के रूप में ।
प्राण, मन और इंद्रियमय हैं
सीमा रहित , गहरे समुंदर समान वे
थाह जानना अत्यंत कठिन उनकी
विद्वान भी बड़े बड़े बहुत से ।
उनके तात्पर्य का ठीक ठीक से
निर्णय सही कर पाते वो नही
अनन्त ब्रह्म हूँ उद्धव स्वयं मैं
विस्तार वेदवाणी का किया मैंने ही ।
प्राणी के अंतकरण में वेदवाणी ये
अनाहतनाद के रूप में प्रकट है होती
वेदमूर्ति एवं अमृतमय हैं
भगवान हिरणयगर्भ स्वयं ही ।
अनेकों मार्गों वाली वेदवाणी ये
उसको प्रकट करते हैं वे
और फिर अपने में ही
लीन कर लेते हैं उसको ।
स्पर्श, स्वर, ऊष्मा और अनंतमय
विभूषित है ये वाणी इन वर्णों से
उसमें ऐसे छन्द हैं जिनमें
उतरोतर चार चार वर्ण बढ़ते जाते ।
उनके द्वारा विचित्र भाषा के रूप में
विस्तृत हुई है वेदवाणी ये
और कोई भी नही जानता
इसके रहस्यों को, सिवा मेरे ।
कर्मकाण्ड में क्या विधान करती और
उपासना काण्ड में वेदवाणी ये
तर्पण करती किन देवताओं का
और फिर ज्ञानकाण्ड में ।
किन प्रतीतियों का अनुवाद करके
विकल्प करे अनेकों प्रकार का उनमें
इन बातों और इस सम्बंध में
रहस्यों हैं जो श्रुति के ।
मैं ही जानता हूँ बस
और उद्धव सभी श्रुतियों ये
कर्मकाण्ड में विधान करें मेरा ही
और इस उपासनाकाण्ड में ।
उपासय देवताओं के रूप में
मेरा ही वो वर्णन करतीं
ज्ञानकाण्ड में आकाशादि के रूप में
ये श्रुतियाँ मुझमें ही ।
आरोप कर के अन्य वस्तुओं का
निषेध कर देतीं हैं उनका
इतना ही तात्पर्य है बस
इन सब सम्पूर्ण श्रुतियाँ का ।
कि वो मेरा आश्रय लेकर
मुझमें भेद का आरोप हैं करतीं
मायामात्र कह अनुवाद करें उनका
अंत में सबका निषेध हैं करतीं ।
फिर मुझमें ही शांत हो जाएँ
और फिर अधिष्ठान रूप में
मैं ही शेष रह जाता हूँ
वेदवाणी का सार है ये