श्रीमद्भागवत -२९०ः माया, माया के पार होने के उपाय तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण
श्रीमद्भागवत -२९०ः माया, माया के पार होने के उपाय तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण
राजा निमि ने पूछा, भगवन
बड़े बड़ों को मोहित कर दे
भगवान की ये माया जो
पहचान नही पाया कोई उसे ।
आप कहते हैं, भक्त मेरा
देखा करता उस माया को
अतः स्वरूप जानना चाहता मैं
इस माया का, बतलाइए मुझको ।
मृत्यु का शिकार एक मनुष्य मैं
तपा रखा संसार के तापों ने
भगवत्स्वरूप एकमात्र औषधि
उन तापों को मिटाने के लिए ।
आप जो इस अमृत का
मुझको हैं पान करा रहे
कृपा कर आप कहिए
विस्तार से इसके बारे में ।
तीसरे योगेश्वर अन्तरिक्ष जी ने कहा तब
राजन, अनिर्वचनिय भगवान की माया
इसलिए उसका निरूपण होता है
इसके कार्यों के द्वारा ।
आदिपुरुष सृष्टि हैं करते
पंचभूतों के द्वारा सबकी
देव, मनुष्य आदि शरीरों की
माया कहते हैं इसी को ही ।
शरीर में प्रवेश किया उन्होंने
अंतर यामी के रूप में
अपने को ही विभक्त किया फिर
मन, जननेंद्रियों, कर्मेंद्रियों में ।
विषयों का भोग कराने लगे
फिर उन सब के द्वारा ही
जीव शरीर को ही आत्मा मानता
यही है माया भगवान की ।
शरीर को अपना स्वरूप मानकर
आसक्त रहता है उसी में
शुभ और अशुभ कर्म फिर
करता रहता कर्मेंद्रियों से ।
सुख और दुःख, उन कर्मों का फल
फिर वो है भोगने लगता
भटकने लगता इस संसार में
यही है भगवान कि माया ।
जन्म के बाद मृत्यु और
मृत्यु के बाद फिर जन्म ले
कितनी ही कर्मगतियों को प्राप्त हो
भगवान की है माया ये ।
जब प्रलय का समय आता है
काल तब इस समस्त सृष्टि को
अपने मूल कारण की और खींचता
भगवान की माया यही तो ।
लगातार सौ वर्षों तक तब
पृथ्वी पर भयंकर सूखा पड़ता
सूर्य तपाए तीनो लोकों को
यही है भगवान कि माया ।
शेषनाग - संकर्षण के मुँह से तब
प्रचंड लपटें निकलें आग की
वायु की प्रेरणा से फिर
चारों और वो फैलने लगतीं ।
प्रलयकालिनमेघ इसके बाद फिर
सौ वर्ष तक बरसते रहते
ब्रह्माण्ड ये डूब जाता है जल में
सब भगवान की माया ये ।
ब्रह्मा अपना शरीर छोड़कर
लीन हो जाते सूक्षमस्वरूप में
पृथ्वी जल के रूप में हो जाती
जल अग्नि बने, है माया ये ।
अन्धकार अग्नि का रूप छीन ले
अग्नि लीन हो जाती वायु में
वायु आकाश में लीन हो जाता
भगवान की है माया ये ।
आकाश तामस अहंकार में लीन हो
अहंकार लीन हो महतत्व में
महतत्व प्रकृति में लीन हो
लीन प्रकृति होती ब्रह्म में ।
फिर इसी के उल्टे क्रम में
होती है ये सारी सृष्टि
यह सृष्टि, स्थिति और संहार
करने वाली त्रिगुणमयी माया यही ।
राजा निमि ने पूछा, महर्षि
इस माया को पार पाना तो
बहुत कठिन है उन लोगों के लिए
मन को वश में नही रख पाते जो ।
कृपाकर आप यह बतलाइए कि
जो आत्मबुद्धि रखें शरीर आदि में
और जिनकी समझ मोटी हो
वो इसको कैसे पार करें ।
चौथे योगेश्वर प्रबुद्ध जी तब बोले
राजन, स्त्री पुरुष इस संसार के
सुख प्राप्ति, दुःख निवृत्ति के लिए
बड़े बड़े कर्म हैं करते ।
माया के पार जाना चाहता जो
विचार उसको ये करना चाहिए
कि किस प्रकार विपरीत होता जाता
उनके सब कर्मों का फल ये ।
सुख के बदले वे दुःख पाते हैं
निवृत्ति ना हो, ये तो बढ़ता जाता
दुःख और भी बढ जाए
अगर धन कोई ले ले उसका ।
धन पाना वैसे तो कठिन है
पर किसी प्रकार मिल भी जाए जो
ये मृत्यु समान ही है
अपनी आत्मा के लिए तो ।
इन सब उलझनों में पड़कर
भूल जाता अपने आप को
धन, पुत्र, स्वजन, सम्बन्धी सब
नाशवान हैं ये सभी भी तो ।
इन्हें कोई जुटा भी ले तो
क्या सुख शांति मिल सकती इनसे ?
ऐसे ही नाशवान लोक परलोक जो
प्राप्त होते बाद मरने के ।
क्योंकि इस लोक की वस्तुओं के समान
वो भी सीमित फलमात्र सीमित कर्मों के
अधिक ऐश्वर्या और सुख वालों के प्रति
वहाँ भी ईर्ष्या, द्वेष का भाव रहे ।
कम सुख और ऐश्वर्य वालों के
प्रति रहती है घृणा वहाँ भी
कर्मों का फल पूरा होने पर
वहाँ से पतन तो होता ही ।
उसका नाश निश्चित है
नाश का भय ना दूर होता वहाँ
इसलिए गुरु की शरण में जाए
जिज्ञासु हो जो, परम कल्याण का ।
गुरुदेव परम ज्ञानी हों
पारदर्शी विद्वान हों वेदों के
उनका चित शांत हो और
जिज्ञासु उन्हें इष्टदेव ही माने ।
निष्कपटता से सेवा करे उनकी
शिक्षा ग्रहण करे भागवतधर्म की
भगवान के प्रेमी भक्तों से प्रेम करे
दया रखे प्राणियों के प्रति ।
पवित्रता शरीर और भीतर की
और ब्रह्मचर्य आदि नियम सीखे वो
समस्त देश, काल, वस्तुओं में
देखे आत्मा और ईश्वर को ।
एकान्तसेवन करना चाहिए उसे
जो मिल जाए, संतो
ष करे उसमें
भगवान की प्राप्ति का मार्ग जो
श्रद्धा रखे वो उन शास्त्रों में ।
प्राणायाम के द्वारा मन को
वाणी को मौन के द्वारा
और वासना हीनता के अभ्यास से
कर्मों का संयम करना ।
सत्य बोले, इंद्रियाँ स्थिर रखे
भगवान का श्रवण, ध्यान करे
यज्ञ, दान, जप, स्त्री, पुत्र, प्राण सब
भगवान के चरणों में सौंप दे ।
प्रेम और सेवा करना सीखे
संत पुरुषों में रहकर वो
भक्ति का अनुशठान करने से ऐसे।
उसमें प्रेम, भक्ति का उदय हो ।
पुलकित शरीर धारण करता वो
कभी ये सोच कर रोने लगे
कि सच्चिदानन्द श्री हरि
उसे अभी तक क्यों नही मिले ।
कभी कभी ऐसा सोचकर
कि भगवान अभी मिल जाएँगे
आनंद मगन हो जाता वो
भगवान से कभी वो बातें करने लगे ।
कभी उनके गुणों का गान करे
कभी झूमने लगे प्रेम भाव से
कभी इधर उधर ढूँढे उनको
कभी परम शांति का अनुभव करे ।
प्रेम भक्ति प्राप्त हो प्रभु की और
नारायण के परायण होकर वो
माया को अनायास की पार कर जाता
जिससे निकलना कठिन है वैसे तो ।
राजा निमि ने पूछा, महर्षिओ
परमात्मा का स्वरूप जो जानते
वास्तविक रूप पहचानते उनका
सर्वश्रेष्ठ आप उन लोगों में ।
आप मुझे अब यह बतलाइए
जिस परब्रह्म परमात्मा का
वर्णन किया जाता नारायण नाम से
असल में स्वरूप क्या है उनका ।
पाँचवें योगेश्वर पीपलायन जी बोले
उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का जो
निमित और उपादान कारण हैं
परंतु स्वयं कारण रहित वो ।
जिनकी सत्ता से शरीर, इंद्रियाँ
और अंतकरण काम करने में
समर्थ होते उसी वस्तु को
आप परम नारायण समझिए ।
जैसे कोई चिंगारी अग्नि को
ना तो प्रकाशित कर सकती
ना ही जला सकती उसे
इसी तरह ठीक वैसे ही ।
परमतत्व उस आत्म स्वरूप में
ना गति है मन, वाणी की
नेत्र उसे देख नही सकते
और बुद्धि सोच नही सकती ।
प्राण और इंद्रियाँ तो उसके
पास तक फटक नही सकतीं
बस केवल एक वही था
जब ये सृष्टि भी नही थी ।
त्रिगुणमयी प्रकृति कहकर
उसे ही वर्णन किया जाता
उसकी शक्ति अनन्त है
वो ही ब्रह्म कहलाता ।
यह ब्रह्मस्वरूप आत्मा
जन्म लेता ना, ना है मरता
यह ना तो बढ़ता है
और ना ही ये है घटता ।
जितने भी परिवर्तनशील पदार्थ, उनके
भूत, भविष्य, वर्तमान सत्ता का
वह साक्षी है, सबमें है वो
अविनाशी है, ज्ञानस्वरूप सबका ।
चार प्रकार के जीव जगत में
पक्षी, सांप हों अंडे फोड़ कर
नाल से बंधे हों पशु, मनुष्य और
वृक्ष, वनस्पति उगें धरती फोड़कर ।
खटमल आदि पसीने से उत्पन्न हों
शरीर भिन्न भिन्न , प्राण एक इनका
भगवान की जीव भक्ति करे जब
आत्मा का साक्षात्कार हो जाता ।
राजा निमि ने कहा, योगेश्वरो
कर्मयोग का उपदेश दीजिए मुझे
जिसके द्वारा शुद्ध हो मनुष्य और
आत्मज्ञान प्राप्त हो जाए ।
यही प्रश्न पूछा था मैंने
एक बार सनकादि ऋषियों से
पिता इक्ष्वाकु भी उस समय वहाँ पर
परंतु ऋषियों ने उत्तर ना दिया मुझे ।
छठे योगेश्वर अविरहोत्र ने कहा तब
कर्म जो शास्त्र निहित है
अकर्म जो निषिद्ध है और
विकर्म जो निहित का उलंघन है ।
ये तीनों जाने जाते हैं
एकमात्र वेद के द्वारा ही
इन सब की व्याख्या
लौकिक रीति से नही होती ।
वेद तो ईश्वर स्वरूप है
बड़े बड़े विद्वान भी उनके
भूल कर बैठते हैं उनके
अभिप्राय का निर्णय करने में ।
तुम्हारे बचपन की और देखकर
तुम्हें अनाधिकारी समझकर
सनकादि ने ना दिया उस समय
तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर ।
परोक्षवादात्मक यह वेद है
शब्दार्थ और तात्पर्यर्थ अलग अलग इनके
कर्मों की निवृत्ति के लिए
कर्मों का विधान करते ये ।
अनिभिज्ञयों को स्वर्गआदि का
प्रवचन देकर श्रेष्ठ कर्मों में
प्रवृत करता है वेद ये
उन अज्ञानियों के भले के लिए ।
जिनका अज्ञान निवृत नही हुआ
इंद्रियाँ जिन के वश में नहीं
वेदोक्त कर्मों का परित्याग करें वो तो
वो कहलाता विकर्मरूप अधर्म ही ।
इसलिए फल की अभिलाषा छोड़कर
वेदोक्त कर्मों का अनुशठान करता जो
समर्पण करता भगवान को उन्हें
ज्ञानरूप सिद्धि मिल जाती उसको ।
स्वर्गादि फल का वर्णन है
वेदों में किया जाता जो
फल की सत्यता में नही तात्पर्य उसका
कर्मों में रुचि उत्पन्न करने के लिए वो ।
राजन, जो मनुष्य चाहता कि
शीघ्र से शीघ्र आत्मज्ञान प्राप्त हो
वेदिक और तांत्रिक दोनों पद्दतियों से
भगवान की आराधना करे वो ।
दीक्षा प्राप्त करे गुरुदेव की
विधि सीखकर उनसे अनुशठान की
भगवान की पूजा अरके वो
मुक्त हो जाता शीघ्र ही ।