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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -२९०ः माया, माया के पार होने के उपाय तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण

श्रीमद्भागवत -२९०ः माया, माया के पार होने के उपाय तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण

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राजा निमि ने पूछा, भगवन

बड़े बड़ों को मोहित कर दे

भगवान की ये माया जो

पहचान नही पाया कोई उसे ।


आप कहते हैं, भक्त मेरा 

देखा करता उस माया को

अतः स्वरूप जानना चाहता मैं

इस माया का, बतलाइए मुझको ।


मृत्यु का शिकार एक मनुष्य मैं

तपा रखा संसार के तापों ने

भगवत्स्वरूप एकमात्र औषधि

उन तापों को मिटाने के लिए ।


आप जो इस अमृत का

मुझको हैं पान करा रहे

कृपा कर आप कहिए

विस्तार से इसके बारे में ।


तीसरे योगेश्वर अन्तरिक्ष जी ने कहा तब

राजन, अनिर्वचनिय भगवान की माया

इसलिए उसका निरूपण होता है

इसके कार्यों के द्वारा ।


आदिपुरुष सृष्टि हैं करते

पंचभूतों के द्वारा सबकी

देव, मनुष्य आदि शरीरों की

माया कहते हैं इसी को ही ।


शरीर में प्रवेश किया उन्होंने

अंतर यामी के रूप में

अपने को ही विभक्त किया फिर

मन, जननेंद्रियों, कर्मेंद्रियों में ।


विषयों का भोग कराने लगे

फिर उन सब के द्वारा ही

जीव शरीर को ही आत्मा मानता

यही है माया भगवान की ।


शरीर को अपना स्वरूप मानकर

आसक्त रहता है उसी में

शुभ और अशुभ कर्म फिर

करता रहता कर्मेंद्रियों से ।


सुख और दुःख, उन कर्मों का फल

फिर वो है भोगने लगता

भटकने लगता इस संसार में

यही है भगवान कि माया ।


जन्म के बाद मृत्यु और

मृत्यु के बाद फिर जन्म ले

कितनी ही कर्मगतियों को प्राप्त हो

भगवान की है माया ये ।


जब प्रलय का समय आता है

काल तब इस समस्त सृष्टि को

अपने मूल कारण की और खींचता

भगवान की माया यही तो ।


लगातार सौ वर्षों तक तब

पृथ्वी पर भयंकर सूखा पड़ता

सूर्य तपाए तीनो लोकों को

यही है भगवान कि माया ।


शेषनाग - संकर्षण के मुँह से तब

प्रचंड लपटें निकलें आग की

वायु की प्रेरणा से फिर

चारों और वो फैलने लगतीं ।


प्रलयकालिनमेघ इसके बाद फिर

सौ वर्ष तक बरसते रहते

ब्रह्माण्ड ये डूब जाता है जल में

सब भगवान की माया ये ।


ब्रह्मा अपना शरीर छोड़कर

लीन हो जाते सूक्षमस्वरूप में 

पृथ्वी जल के रूप में हो जाती

जल अग्नि बने, है माया ये ।


अन्धकार अग्नि का रूप छीन ले

अग्नि लीन हो जाती वायु में

वायु आकाश में लीन हो जाता

भगवान की है माया ये ।


आकाश तामस अहंकार में लीन हो

अहंकार लीन हो महतत्व में

महतत्व प्रकृति में लीन हो

लीन प्रकृति होती ब्रह्म में ।


फिर इसी के उल्टे क्रम में

होती है ये सारी सृष्टि

यह सृष्टि, स्थिति और संहार

करने वाली त्रिगुणमयी माया यही ।


राजा निमि ने पूछा, महर्षि

इस माया को पार पाना तो

बहुत कठिन है उन लोगों के लिए

मन को वश में नही रख पाते जो ।


कृपाकर आप यह बतलाइए कि

जो आत्मबुद्धि रखें शरीर आदि में

और जिनकी समझ मोटी हो

वो इसको कैसे पार करें ।


चौथे योगेश्वर प्रबुद्ध जी तब बोले

राजन, स्त्री पुरुष इस संसार के

सुख प्राप्ति, दुःख निवृत्ति के लिए

बड़े बड़े कर्म हैं करते ।


माया के पार जाना चाहता जो

विचार उसको ये करना चाहिए

कि किस प्रकार विपरीत होता जाता 

उनके सब कर्मों का फल ये ।


सुख के बदले वे दुःख पाते हैं

निवृत्ति ना हो, ये तो बढ़ता जाता

दुःख और भी बढ जाए

अगर धन कोई ले ले उसका ।


धन पाना वैसे तो कठिन है

पर किसी प्रकार मिल भी जाए जो

ये मृत्यु समान ही है

अपनी आत्मा के लिए तो ।


इन सब उलझनों में पड़कर

भूल जाता अपने आप को

धन, पुत्र, स्वजन, सम्बन्धी सब

नाशवान हैं ये सभी भी तो ।


इन्हें कोई जुटा भी ले तो

क्या सुख शांति मिल सकती इनसे ?

ऐसे ही नाशवान लोक परलोक जो

प्राप्त होते बाद मरने के ।


क्योंकि इस लोक की वस्तुओं के समान

वो भी सीमित फलमात्र सीमित कर्मों के

अधिक ऐश्वर्या और सुख वालों के प्रति

वहाँ भी ईर्ष्या, द्वेष का भाव रहे ।


कम सुख और ऐश्वर्य वालों के

प्रति रहती है घृणा वहाँ भी

कर्मों का फल पूरा होने पर

वहाँ से पतन तो होता ही ।


उसका नाश निश्चित है 

नाश का भय ना दूर होता वहाँ

इसलिए गुरु की शरण में जाए

जिज्ञासु हो जो, परम कल्याण का ।


गुरुदेव परम ज्ञानी हों

पारदर्शी विद्वान हों वेदों के

उनका चित शांत हो और

जिज्ञासु उन्हें इष्टदेव ही माने ।


निष्कपटता से सेवा करे उनकी

शिक्षा ग्रहण करे भागवतधर्म की

भगवान के प्रेमी भक्तों से प्रेम करे

दया रखे प्राणियों के प्रति ।


पवित्रता शरीर और भीतर की

और ब्रह्मचर्य आदि नियम सीखे वो

समस्त देश, काल, वस्तुओं में

देखे आत्मा और ईश्वर को ।


एकान्तसेवन करना चाहिए उसे

जो मिल जाए, संतोष करे उसमें

भगवान की प्राप्ति का मार्ग जो

श्रद्धा रखे वो उन शास्त्रों में ।


प्राणायाम के द्वारा मन को

वाणी को मौन के द्वारा

और वासना हीनता के अभ्यास से 

कर्मों का संयम करना ।


सत्य बोले, इंद्रियाँ स्थिर रखे

भगवान का श्रवण, ध्यान करे

यज्ञ, दान, जप, स्त्री, पुत्र, प्राण सब

भगवान के चरणों में सौंप दे ।


प्रेम और सेवा करना सीखे

संत पुरुषों में रहकर वो

भक्ति का अनुशठान करने से ऐसे।

उसमें प्रेम, भक्ति का उदय हो ।


पुलकित शरीर धारण करता वो

कभी ये सोच कर रोने लगे

कि सच्चिदानन्द श्री हरि

उसे अभी तक क्यों नही मिले ।


कभी कभी ऐसा सोचकर

कि भगवान अभी मिल जाएँगे

आनंद मगन हो जाता वो

भगवान से कभी वो बातें करने लगे ।


कभी उनके गुणों का गान करे

कभी झूमने लगे प्रेम भाव से

कभी इधर उधर ढूँढे उनको

कभी परम शांति का अनुभव करे ।


प्रेम भक्ति प्राप्त हो प्रभु की और

नारायण के परायण होकर वो

माया को अनायास की पार कर जाता

जिससे निकलना कठिन है वैसे तो ।


राजा निमि ने पूछा, महर्षिओ

परमात्मा का स्वरूप जो जानते

वास्तविक रूप पहचानते उनका

सर्वश्रेष्ठ आप उन लोगों में ।


आप मुझे अब यह बतलाइए

जिस परब्रह्म परमात्मा का

वर्णन किया जाता नारायण नाम से

असल में स्वरूप क्या है उनका ।


पाँचवें योगेश्वर पीपलायन जी बोले

उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का जो

निमित और उपादान कारण हैं

परंतु स्वयं कारण रहित वो ।


जिनकी सत्ता से शरीर, इंद्रियाँ

और अंतकरण काम करने में

समर्थ होते उसी वस्तु को

आप परम नारायण समझिए ।


जैसे कोई चिंगारी अग्नि को

ना तो प्रकाशित कर सकती

ना ही जला सकती उसे

इसी तरह ठीक वैसे ही ।


परमतत्व उस आत्म स्वरूप में

ना गति है मन, वाणी की

नेत्र उसे देख नही सकते

और बुद्धि सोच नही सकती ।


प्राण और इंद्रियाँ तो उसके

पास तक फटक नही सकतीं

बस केवल एक वही था

जब ये सृष्टि भी नही थी ।


त्रिगुणमयी प्रकृति कहकर

उसे ही वर्णन किया जाता

उसकी शक्ति अनन्त है

वो ही ब्रह्म कहलाता ।


यह ब्रह्मस्वरूप आत्मा

जन्म लेता ना, ना है मरता

यह ना तो बढ़ता है

और ना ही ये है घटता ।


जितने भी परिवर्तनशील पदार्थ, उनके

भूत, भविष्य, वर्तमान सत्ता का

वह साक्षी है, सबमें है वो

अविनाशी है, ज्ञानस्वरूप सबका ।


चार प्रकार के जीव जगत में

पक्षी, सांप हों अंडे फोड़ कर

नाल से बंधे हों पशु, मनुष्य और

वृक्ष, वनस्पति उगें धरती फोड़कर ।


खटमल आदि पसीने से उत्पन्न हों

शरीर भिन्न भिन्न , प्राण एक इनका

भगवान की जीव भक्ति करे जब

आत्मा का साक्षात्कार हो जाता ।


राजा निमि ने कहा, योगेश्वरो

कर्मयोग का उपदेश दीजिए मुझे

जिसके द्वारा शुद्ध हो मनुष्य और

आत्मज्ञान प्राप्त हो जाए ।


यही प्रश्न पूछा था मैंने

एक बार सनकादि ऋषियों से

पिता इक्ष्वाकु भी उस समय वहाँ पर

परंतु ऋषियों ने उत्तर ना दिया मुझे ।


छठे योगेश्वर अविरहोत्र ने कहा तब

कर्म जो शास्त्र निहित है

अकर्म जो निषिद्ध है और

विकर्म जो निहित का उलंघन है ।


ये तीनों जाने जाते हैं

एकमात्र वेद के द्वारा ही

इन सब की व्याख्या

लौकिक रीति से नही होती ।


वेद तो ईश्वर स्वरूप है

बड़े बड़े विद्वान भी उनके

भूल कर बैठते हैं उनके

अभिप्राय का निर्णय करने में ।


तुम्हारे बचपन की और देखकर

तुम्हें अनाधिकारी समझकर

सनकादि ने ना दिया उस समय

तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर ।


परोक्षवादात्मक यह वेद है

शब्दार्थ और तात्पर्यर्थ अलग अलग इनके

कर्मों की निवृत्ति के लिए

कर्मों का विधान करते ये ।


अनिभिज्ञयों को स्वर्गआदि का

प्रवचन देकर श्रेष्ठ कर्मों में

प्रवृत करता है वेद ये

उन अज्ञानियों के भले के लिए ।


जिनका अज्ञान निवृत नही हुआ

इंद्रियाँ जिन के वश में नहीं

वेदोक्त कर्मों का परित्याग करें वो तो

वो कहलाता विकर्मरूप अधर्म ही ।


इसलिए फल की अभिलाषा छोड़कर

वेदोक्त कर्मों का अनुशठान करता जो

समर्पण करता भगवान को उन्हें

ज्ञानरूप सिद्धि मिल जाती उसको ।


स्वर्गादि फल का वर्णन है

वेदों में किया जाता जो

फल की सत्यता में नही तात्पर्य उसका 

कर्मों में रुचि उत्पन्न करने के लिए वो ।


राजन, जो मनुष्य चाहता कि

शीघ्र से शीघ्र आत्मज्ञान प्राप्त हो

वेदिक और तांत्रिक  दोनों पद्दतियों से

भगवान की आराधना करे वो ।


दीक्षा प्राप्त करे गुरुदेव की

विधि सीखकर उनसे अनुशठान की

भगवान की पूजा अरके वो

मुक्त हो जाता शीघ्र ही ।



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