STORYMIRROR

Yogesh Kanava

Abstract Classics Inspirational

4  

Yogesh Kanava

Abstract Classics Inspirational

एक ना एक दिन

एक ना एक दिन

1 min
402

मौत का सा सन्नाटा 

वीरान सी बस्ती 

बेबस लाचार सी झुकी नज़रें ,

चेहरे पर पड़ी 

झुर्रियां 

गालों के गड्डे 

गहरी धंसी आँखें ,


दूर से ही गिनी जा सकने वाली 

चमड़ी से बहार निकली 

पसलियां 

और 

रीढ़ से चिपका पेट। 


इसे देखकर भ्रम होता है 

कि 

सचमुच जीवित कंकाल है 

या 

खेत में खड़ा कोई बिजूका 

पर 

ये भ्रम टूट जाता है 


दूर तक सन्नाटे को तोड़ती 

खांसी की आवाज़ से। 

एक नहीं पूरी की पूरी 

बस्ती ही ऐसी है 

याचनामयी दृष्टि से देखती 

पर

होठ खामोश हैं 

शब्दों पर 

पहरे हैं 


ना जाने कौनसा पहरेदार 

कब आ जाये 

इसी डर से 

अरमानो सी मचलती वेदना 

होठों में क़ैद शब्द 

बहार नहीं आ रहे हैं 


पर 

ये तो सोचो 

कब तक रोक पाओगे 

अपने ही भीतर समेटे 

इस ज्वालामुखी को 

एक ना एक दिन 

ये फूट पड़ेगी 

सैलाब बनकर धधकता लावा 

बहा ले जायेगा 

अपने साथ 

समाज के तमाम 

ठेकेदारों को।  


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract