कजरी की झंकार
कजरी की झंकार
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अब तो समझो सनम
मुझ पगली को
आकाश की बदली को
सावन की कजली को
क्रीड़ा है, खेल है ये
त्योहार है व्रत है ये
उपालम्भ है आमंत्रण है
मन की व्यथा का चित्रण है
आकुलता है व्याकुलता है
भीगी भीगी सी बस्ती है
नैनों की मस्ती है
मिलन की आशा है
लोक की भाषा है
पुरवाई की बयार है
सावनी फुहार है
अंगड़ाइयों का आकर है
यही कजरी की झंकार है।