पखेरू हुआ मन
पखेरू हुआ मन
विस्तृत आकाश सा होता है ह्रदय
होती रहती है इसमें
सुनहरे ख़्वाबों की अनवरत आवाजाही
उमड़ती हैं भावनाएँ कुछ यूँ,
ज्यूँ घुमड़ते हैं बादल भीतर की उमस से झगड़ती
बेधड़क, बेपरवाह, अल्हड़ लड़की-
कभी करती हैं ये शोर
तो कभी आसमान का माथा चूम,
लेती हैं बलैयाँ और फिर
विदाई की गहन बेला में
बरसती भी हैं बेहिसाब।
लाख तालों में रखो तुम प्रेम को
पर सदा महकती रहेगी सुगंध इसकी
जैसे बहक जाता है गुलाब
चहकने लगता है चेहरा
जैसे खिलता है शबाब।
भला मन को भी बाँध सका है कोई !
ये तो सारी सीमायें लाँघ
अपने प्रिय के पास
पहुँच जाता है पल में
और फिर हँसते हुए मिलता है गले
ठीक उसी तरह,
जैसे साइबेरिया से आये तमाम पक्षी
खिलखिलाते हैं यहाँ सर्दियों में।।
