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Sakshi Vaishampayan

Abstract Inspirational

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Sakshi Vaishampayan

Abstract Inspirational

मन पायदान

मन पायदान

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भटके रे मोहों के काले-काले नाग रे,

मनवा लगाए बैठे सपनों के बाग़ रे,

अब न सुनी है मेरी कोई भी बात ये,

डँसता है, रुकता है, फिर करता आघात ये।

कोई राही है, कि आतंकी, या कोई आम शहरी!

मेरा मन मुझसे छल करता जाए,

साथ भी दे गहरीI


कभी छोटे बच्चे सा ज़िद करे, बात मनवाए;

कभी प्रेमी बनकर आकर्षण से खींचे, बुलाए;

कभी ‘कर्ता’ बन कर मेरी ज़िम्मेदारियाँ बताए,

कभी दादा जैसे मश्वरे दे, आराम बजाए;

कोई राही है, कि आतंकी, या कोई आम शहरी!

मेरा मन मुझसे छल करता जाए,

साथ भी दे गहरीI


इस आपाधापी में, इस अनकही तालाश में;

पाता हूँ, खोता हूँ, छनता हूँ तराश में;

चला, उठा, दौड़ा, गिरा; सपनों को पकड़े रहा,

डरा, रोया, चीख़ा, हँसा; पर मन ने हमेशा कहा,

“जा, चल, उड़ान भर ले, ऊँचे तुझे जाना है;

मैं तो तुझे जानता हूँ, क्या तूने ख़ुद को जाना है?”


कोई राही है, कि आतंकी, या कोई आम शहरी!

मेरा मन मुझसे छल करता जाए,

साथ भी दे गहरीI


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