फफूंद
फफूंद
आज किचन में कुछ भुने मसाले ढूंढते हुए,
उस अजीब शक्ल वाले शख्स से मुलाकात हुई।
इमली के डब्बे के पीछे कुछ यूं सहमकर बैठा था,
कि जैसे हाथ ही आना चाहता ना हो किसी के।
उंगलियों से टकराया जो चेहरा उसका,
नम आंखों से देखा उसने और पलकें नीचे कर लीं।
जैसे किसी बच्चे ने अपने फाइनल एकजम्स की मार्कशीट,
थमाई हो अपने मां - बाप को, और
"दस में से छह विषयों में फेल"? इस सवाल का,
मन ही मन जवाब दे रहा हो अपने - आप को!
शक्ल पहचान में आती ही न थी।
बड़े ग़ौर से देखा तो जाना कि ये वो मिर्ची थी,
जिसे तल कर खाने - खिलाने,
बड़े प्यार और जतन से धूप में पिछले साल,
सुखाए थे नूतन की सास ने।
कहा था, "दही लगाकर सूखने दे कुछ दिन,
फिर लगेंगे बड़े ही ख़ास ये"।
"यूं रूई में क्यों लिपटी पड़ी है"?
यूं सोचकर जो डब्बा खोला नूतन की सास ने,
"उफ्फ" की शोर के साथ बंद किया ढक्कन तुरंत।
रह ना पाई अब इक पल और पास में।
"इसलिए कहती थी धूप में ज़रा अच्छे से सुखाओ।
पर मेरी भला कोई सुनता - मानता कहां है?
अब चाहो जो मर्ज़ी वो करो। ना कहो फिर कि ' अम्मा बताओ '।"
यूं आग ब
बूला हो कर निकली अम्मा किचेन से,
आवाज़ सुनकर भागी - भागी नूतन आयी।
उनींदी आंखों से यूं देखा जैसे अभी उठी हो शयन से।
बोली, " क्या हुआ अम्मा? क्यूं इतना बवाल"?
अम्मा बिफरी: " अरे वाह! ख़ुद बेफिक्री में रहो हमेशा, और मुझसे पूछो सवाल?
ये आजकल की पीढ़ी का, जाने ध्यान कहां रहता है?
ना कीमत वक्त, पैसे या मेहनत की;
कितना भी समझाओ, मन कहां संभलता है!"
हाथ में ' बूढ़ी ' मिर्ची की डब्बी देख,
नूतन ने सबकुछ भांप लिया।
कमरे से रसोई तक आते - आते,
शब्दों को कानों ने नाप लिया।
बोली धीरे से, " अम्मा, आपने जो दही वाले मिर्च सुखाने कहे थे,
वो तो कांच वाली बड़ी शीशी में पैक है वैसा ही फ्रेश।
ये जो फफूंद में लिपटी पड़ी है यहां,
इसे तो आपने ही समेटा - संजोया वर्ष भर सहर्ष"।
ठिठक कर देखा एक मिनट अम्मा ने नूतन को,
फिर चुपचाप निकलीं ऐसे,
जैसे -
खोज ही लिया हो बतंगड़ में ' बात ' को।
तभी पापाजी की खनक आवाज़ आयी,
जैसे कमरे की आकाशवाणी छाई,
" कुछ इतना संभाल लिया उसे कि बस बीमार हो गया,
जो वक्त रहते उपयोग में लाते, तो ना लगता कि बेकार गया "।