किस्सा कहानी का
किस्सा कहानी का


मैं लिखती हूँ. काफी कुछ...
कविताएं, कहानी और गीत, बस झपट के पिरो देती हूँ पंक्तियों में,
जब भी मिलते हैं कोई शब्द, घटनाएं या संगीत...
लेकिन, ऐसा नहीं कि ये मिलते हैं, यूँ ही रास्ते पर पड़े
अरे, ये तो भागते हैं मेरे पीछे, या रास्ता रोक कर हो जाते हैं खड़े.
ज़बरदस्ती मेरे हाथ से पेन को उठवाते हैं और खुद,
आराम से स्याही के साथ कागज़ पर पसर जाते हैं...
अब जंग जारी होती है, कहानी ख़त्म करने की,
क्योंकि ये हर रचना को अधूरा छोड़ जाते हैं.
अब ये आगे आगे और मैं इनके पीछे पीछे भागती हूँ,
जाने कहाँ छिप जाते हैं, मैं दिन रात तकती हूँ...
आखिरकार मैंने, कुछ शब्दो को धरदबोचा,
और छंदों की गांठ मारी और किस्सों को पोटली में खोसा...
मैंने इन सब से पूछा की यार, तुम इस कहानी को ख़त्म क्यों नहीं होने देते?
ये कहते हैं, के तुम मुंह ढक के क्यों नहीं सो लेते
मैंने विनती की, कि देखो और भी बहुत सारा काम है,
अरे
छोड़ो... चाचा जी ने भी कहा था के आराम हराम है...
इनके बेतुके पण पर मुझे बड़ा गुस्सा आया,
और भारी मन से मैंने ये कदम उठाया...
रहने दो इस कहानी को अधूरी...
अब मैं भी देखती हूँ कि कौन करता है इसे पूरी...
बस! गुस्से में मैं बीच सड़क पर थम गई.
और कुछ ही देर में कई शब्दों की चौकड़ी मेरे आगे आके जम गई...
मैं सकपकाई पर संभाला अपना ध्यान
और बड़ी गंभीरता के साथ पेला ज्ञान,
की क्यों अपनी ज़िम्मेदारियों से मुहँ मोड़ते हो,
इस कहानी को ख़त्म करो यार, इसे क्यों मझधार में छोड़ते हो...
अब कुछ शब्द बड़े इत्मिनान से खड़े हुए,
और शायराना अंदाज़ में बोले,
अगर कहानियों को मकसद मिलता रहा हवा में तो वे शून्य हो जाएंगी...
किसी अज्ञात अस्तित्व में परिपूर्ण हो जाएंगी.
मोहतरमा, गौर फरमाएं...
कि कोई कहानी कभी पूरी नहीं होती...कि कोई कहानी कभी पूरी नहीं होती...
और जो पूरी हो गई वो ज़रूरी नहीं होती...