अकिंचन
अकिंचन


अकिंचन ही निकल पड़ता हूँ,
उन चौराहों की खोज में,
जो मेरे अंदर के द्वन्द्व को कुछ पत्थरों के नीचे दबा दें;
फिर उस सड़क की तासीर नजर आती है,
जो ना जाने कितने चौराहे लिए खड़ा है,
शायद इसी रास्ते ने नचिकेता को भी देखा था,
अकिंचन तो वो भी निकला था,
लेकिन दुविधा
और वेदना के इस असहाय मध्यांतर में,
उसने खुद को खोज लिया;
निद्रा और स्वप्न के बस थोड़े से ही करीब,
घंटों इंतजार करने के बाद,
प्रश्नों की कतार लग जाती है,
अपनी ही अमंगल कामना को लिए,
ज्ञानेन्द्रियों का एक समूह,
प्रतिबिम्ब की ओर इशारा करता है,
दर्पण अस्थायी
और शिथिल सा मालूम पड़ता है,
फिर जल के उस पात्र को टटोलना और
ग्रीवा की उस अनबुझी प्यास के मध्य
उस रिक्त शून्य के साथ अकिंचन मन
भी प्रस्तुत हो जाता है
उन परिभाषाओं की अनंत
क
िन्तु सहज
प्रश्नोत्तरी के अवलोकन में;
शब्दावली सरस होती है;
पर जो उन चौराहों से
पल भर की संलाप में,
जो चंद उपमाएं बटोर लाया था,
वो शायद इस आगंतुक विचार,
का स्वागत करने में असहज
लगते हैं,
फिर ख्याल आता है कि,
रात्रि के दो पहर बीतने के बाद भी,
अकिंचन ही हूँ मैं,
लेकिन अर्थ थोड़ा भिन्न है,
इस स्वनिर्मित शब्दावली के अनुसार,
खुद का उपहास उड़ाता,
अस्तित्व ;
क्षितिज निर्धारित नहीं कर पाता,
लेकिन प्रश्नों की संख्या
अवश्य बढ़ा देता है।
शब्दों का बेतुकापन,
थोड़ा छिछला कर देता है शायद,
लेकिन अकिंचन होना भी सार्थक है,
शायद प्रश्नों की श्रृंखला में,
उत्तर बस प्रतिबिम्ब है,
तलाश तो है,
पर खुद की नहीं,
अपितु एक योग्य दर्पण की ।