ठहाके
ठहाके
कहीं शोर हुआ, कभी गूंजे ठहाके,
कभी बातें यूं ले चलीं बहा के,
कि भान रहा ना समय का ख़ुद को,
कई किस्से बिखरे खिलखिला के।
हर चेहरा क्यूं यहां खुला - खुला सा,
जैसे जेठ की दोपहर में ठंडी हवा चली,
यहां शिकवों - शिकनों का काम भी क्या है?
ये अपने कट्टे-चौराहे, ये है यारों वाली गली।
इन गलियों में उम्र का लोड नहीं है।
किसकी क्या खूबी, क्या खामी ऐसी होड़ नहीं है।
बेबात की बकवास जहां पर, बेवक्त भी,
कटिंग चाय की चुस्की देती है।
कभी कंधे पे रख हाथ चर्चे करते हैं,
तो कभी सब पोज़ बनाकर, होंठ घुमाकर,
हाथ किसी की सेल्फ़ी लेती है!
हर चेहरा क्यूं यहां खुला - खुला सा,
जैसे जेठ की दोपहर में ठंडी हवा चली,
यहां शिकवों - शिकनों का काम भी क्या है?
ये अपने कट्टे-चौराहे, ये है यारों वाली गली।