हृदय-द्वंद
हृदय-द्वंद
मोहन तुम कितना भी छल लो,
मैं तेरा कहा ना टालूंगी।
विकल होकर भी स्थिर - शांत रहूंगी,
बैराग गृहस्थी में पालूंगी।
पल - कल की परीक्षा ले लो चाहो,
गीता के रंग मैं ढालूंगी,
मोहन तुम कितना भी छल लो,
मैं तेरा कहा ना टालूंगी।
संसार के रंग ढंग नहीं भाते,
चेहरों पर चेहरे नज़र आते,
धर्म के मर्म तक जाना चाहूं तो,
देहलीज़ दिखाकर सब बेड़ियां लगाते;
हंस लो गिरिधर, छुपो हांक मारकर,
फ़िर भी तुम्हे ढूंढ निकालूंगी।
विकल होकर भी स्थिर - शांत रहूंगी,
बैराग गृहस्थी में पालूंगी।
मोहन तुम कितना भी छल लो,
मैं तेरा कहा ना टालूंगी।
बंसी की अविरल तान तुम्हारी,
है प्राण हमारे जीवन का।
कर्म - स्वर " गीता " के मोती,
अब बोध - भाव है इस मन का।
हे गुरु! नमन। हे सखा! नमन ।
साधो मुझ शूद्र का आयुष्य गमन।
हे परम सारथी! मैं पथ विचलित,
संवारो मेरा कर्म - मार्ग भ्रमण।
तेरे शंखनाद से मुरली का स्वर तक,
मैं सत्याव्रत समान पालूंगी;
विकल होकर भी स्थिर - शांत रहूंगी,
बैराग गृहस्थी में पालूंगी।
मोहन तुम कितना भी छल लो,
मैं तेरा कहा ना टालूंगी।
मोहन तुम कितना भी छल लो,
मैं तेरा कहा ना टालूंगी।