क्या फर्क पड़ता है
क्या फर्क पड़ता है
क्या फर्क पड़ता है ?
कहने पर किसी के सोचा,
आज कुछ ऐसा लिखे,
कि पूरा व्याकरण समा जाये।
अलंकार,रस,दोहा,चोपाई, छंद।
न होने पाए किसी कि भी गरिमा मंद।
दिल और दिमाग के बीच होने लगा दुवंद।
कुछ अतृप्त आकांक्षाओ ने कहा,
वो काव्य का समुंदर अब न रहा।
सुनकर दिल पर लगा तीर,
सूर,काली,तुलसी,कबीर।
इनकी रचनाये तो है बहता नीर।
प्रेम रस में डूबी मीरा के भजन,
रसखान की साँवरे से लगन।
पंत, निराला,गुप्त, बच्चन,
क्या अब ढुंड पाएंगे हम।
मणियो में मणिबंद,
अमर लेखक प्रेमचद्र।
टैगोर,नायडू,वर्मा,चौहान,
ये तो है अपने हिन्द की शान।
बिहारी, रहीम,भारतेंदू,
जैसे आकाश में छाए इंदु।
ऐसे अनगिनत नाम है।
जिनकी रचनाओं के शब्द,
रत्नो की खान है।
ये बेजुबानो की ज़ुबान है।
उफनते हुए अरमान है।
एक सुक़ू सा मिलता है इन्हे पढ़कर।
रूह जन्नत हो आती है बिना मरकर।
कितने कवि लेखक आये ओर आयेगेँ,
जो सागर से खींच कर मोती लाएंगे।
हम भी कभी यूँ ही,
शब्दों के चक्र्व्हू में फँस जाते है।
लिखे क्या?समझ नहीं पाते है।
वीर,वात्सल्य,हास्य,श्रंगार,
लेखक कवियो का तो ये ही है आहार।
अपने शब्दो का तो बिल्कुल अलग है संसार।
इसमें न कोई छंद और न ही कोई अलंकार।
दोस्तों अब तो लिखने से पहले ही,
कलम को पोलियो जकड़ता है।
छंद मुक़्त हो या छंद युक्त,
"क्या फर्क पड़ता है "