लम्हे
लम्हे
मेरी कहानी में गर कुछ किरदार नहीं होते
ये पन्ने इस तरह बेकार नहीं होते
उस कील पर बस तारीखें ही तो टंगी हैं
गरीबों के कैलेंडरों में त्योहार नहीं होते
इमारतें बनती है रोज़, हर रोज़
मजदूरों के दफ्तरों में इतवार नहीं होते
वो बस आँखे झुकाए तो ले ले जान
कत्ल करने को जरूरी हथियार नहीं होते
जो दिल में हो वो जुबां पर रख देते हैं
बच्चे हम जैसे होशियार नहीं होते
जो ज़माने भर से छुपा लेते हैं अपने जुर्म
वो आइनों में क्यों गिरफ्तार नहीं होते
वो आँखों से कहे तब यकीं करना
मोहोब्बत में होठों से इनकार नहीं होते
दफ्तर, अस्पताल, सड़क, सियासत
जमीरों के कोई तय बाजार नहीं होते
चॉक्लेट चूरन तेल साबुन
खबरों वाले अब अख़बार नहीं होते।