चंद लम्हें
चंद लम्हें
चंद लम्हों को कई सदियाँ बना लेते हैं,
बनाते-बनाते, गमों से हम, खुशियाँ बना लेते हैं।
ना पंख बचे और ना हौसला उड़ने का,
शाम होते, कागज़ पर हम, तितलियाँ बना लेते हैं।
घुटने टेक दिए हैं, हर हसरत ने आते-जाते,
धीरे-धीरे, डर को हम, मजबूरियाँ बना लेते हैं।
तुम्हारे जैसा कोई कहीं मिलता कहाँ है !
जो साया मिले, उससे हम, नज़दीकियाँ बना लेते हैं।
कुर्बतों से, ना जाने क्या डर लगा रहता है,
डरते-डरते, हर किसी से हम, दूरियां बना लेते हैं।
ये इलज़ाम बिलकुल लाज़मी हैं हम पर,
तोड़ते-तोड़ते, जिंदगी से हम, ज़िंदगियाँ बना लेते हैं।
काले बादलों सा हुनर-ए-सुखनवरी है 'वीर',
लिखते-लिखते, गमों को हम, बिजलियाँ बना लेते हैं॥