मेघ
मेघ


तुम्हारे होठों पर बसा सांत्वना भरा स्पर्श,
तरसता यह अनछुआ मन;
बरसने को आतुर स्नेह,
दौड़ के भीग जाने को तरसता नेह;
कब आओगे बादल ? बरसने;
भिगोने मुझे नख शिख तक;
जिस मे धुल जाए मेरे सर्वत्र अवगुण,
और मैं ! उस बाढ़ में आप्लावित,
खुश, प्रसन्न, अपना सर्वस्व खो कर !
कच्ची फाँक सी खट्टी में,
जेठ की मिठास से उतरते मुझमे तुम !
रसवंती मेघ से तुम;
बरसते मुझ में।
मैं भीगती पोर-पोर,
रोम-रोम अंदर तक
तुम घनघोर पहुंच जाते,
मेरी अंतहीन रुक्षता की
हर सीमा तक।
तुम्हारे होठों के अंतिम किनारे तक
खिलखिलाती हँसी;
चहकती मेरे अंतस पर
किसी चिड़िया सी।
तुम्हारा खड़ा होना,
मेरे मन की चौखट पर
और मेरे इंतजार का बिखरना,
तुम्हारे पैरों के नीचे एक घर बनकर।