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archana nema

Others

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कविता- "इस बरस माँ "

कविता- "इस बरस माँ "

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पलाश को कोई फर्क नहीं पड़ेगा इस बरस ; 

फिर फूल जाएगा सुर्ख नारंगी। 

रक्ताभ खिले गुलमोहर को भी कौन रोक पाएगा मलयजी झकोरो में झूमने से ;

 उसे क्या, जो इस बरस, बसंत में नही दिखेगी मेरी माँ दूर तक कही भी। 

किसी रेतीले रास्ते पर अब नही बनेंगे माँ के पदचिन्ह 

उनकी टूटती सांसो की आहट अब नही सुनायी देगी कानों को । 

मेरे मन की शाख से किसी पीत विवर्ण पत्ते सी झर गयी माँ ! 

मृत्यु गान की लहरियों से अनुशंसित उनकी चेतना ने सुना ही नही मेरे , आमंत्रित करते, हहराते जीवन स्वरों को ।

जाने के बाद भी उनके स्पर्श को महसूस किया है मैंने अपने कांधे पर। 

क्या गौरैया चिड़िया का रूप धरे आती है मां ; तभी तो आंगन की चटकीली धूप और सुनहरी, रुपहली हो उठती है। 

दूर कहीं, मंथर गति में मंदिर से आते अस्पष्ट चौपाइयों और छंदों के स्वर,

पास में मां के रक्षा स्त्रोत की जापों से सुनाई देते हैं । 

कैसे विस्मृत करेंगी माँ , उस निरंजना शरद पूर्णिमा शशि को;

 जिसकी ज्योत्स्ना से आप्लावित थे हम, खुरदुरी छत पर, भीतर से बाहर तक । 

अब जबकि उनमें और मुझमें सात आसमानों की दूरी है ; 

हज़ारों नक्षत्र है उनके और मेरे अंतराल में 

एक प्रत्याशा है मन में कि माँ सहेजे अपने होंठों पर एक अपरिमित मुस्कान ; 

कि कहीं कोसों दूर ; मेरे रूप में उनका एक छोटा अंश , सदैव मनन करेगा उनका, 

और सजल नेत्रों में वास होगा निरंतर माँ का ।


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